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आस्रव अधिकार
१०३ निरस्त-कर्म-सङ्गश्चापरिणामी ततो मतः ।।१३२।। अन्वय:-कषायिणः परिणामिनः जीवस्य कषाय-परिणामः अस्ति । अकषायस्य सर्वथा न अस्ति सिद्धस्य इव। ___ यतः अस्य अपरिणामिनः अकषायिणः न संसारः न मोक्षः अस्ति । ततः निरस्त-कर्मसङ्गः अपरिणामी मतः।
सरलार्थ :- कषाय सहित परिणमनशील जीव के कषाय-परिणाम होता है और जो जीव कषाय रहित परिणमन करता है, उस जीव को कषाय परिणाम नहीं होता; जैसे - सिद्ध पर्याय से परिणत जीव।
क्योंकि कषाय रहित अपरिणामी जीव के न तो संसार है और न मोक्ष । इस कारण जिसके कर्म का अभाव हो गया है, वह जीव अपरिणामी माना गया है।
भावार्थ:-पिछले श्लोक में ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग से कषाय उत्पन्न नहीं होते, ऐसा कहा है; लेकिन जगत में कषाय तो अनुभव में आते हैं तो वे कषाय किसके होते हैं? उत्तर में इस श्लोक द्वारा बताया है कि जो जीव कषाय सहित होकर परिणमनशील हैं, उन्हें कषाय होते हैं।
कषाय रहित जीव को अपरिणामी कहा है, इसका अर्थ इन सिद्ध जीवों में परिणमन होता ही नहीं; ऐसा नहीं है, उत्पाद-व्ययरूप परिणमन प्रत्येक द्रव्य में जो होता है, वह तो सिद्धों में भी होता ही रहता है। शास्त्र में जो कुछ कथन किया जाता है, उसे आगम परंपरा को सुरक्षित रखते हुए ही अर्थ करना शास्त्राभ्यासी का कर्तव्य है।
सारांश यह है कि जबतक जीव को मोहकर्म की सत्ता एवं उदय है तबतक जीव कषायरूप परिणमन करता है और मोहकर्म के नाश होने पर वीतरागी हुआ जीव कषायरूप परिणमन सर्वथा नहीं करता। जीव तथा कर्म के कर्तृत्वसंबंधी कथन -
नान्योन्य-गुण-कर्तृत्वं विद्यते जीव-कर्मणोः।
अन्योन्यापेक्षयोत्पत्ति: परिणामस्य केवलम् ।।१३३।। अन्वय :- जीव-कर्मणोः अन्योन्य-गुण-कर्तृत्वं न विद्यते । अन्योन्यापेक्षया केवलं परिणामस्य उत्पत्तिः (जायते)।
सरलार्थ :- जीव और आठ प्रकार के कर्म में एक दूसरे के गुणों का कर्तापना विद्यमान नहीं है अर्थात् न जीव में कर्म के गुणों को करने की सामर्थ्य है और न कर्म में जीव के गुणों को उत्पन्न करने की शक्ति है। एक-दूसरे की अपेक्षा से अर्थात् निमित्त से केवल परिणाम की ही उत्पत्ति होती है।
भावार्थ :- विश्व में जाति अपेक्षा छह द्रव्य हैं और संख्या की अपेक्षा से अनंतानंत द्रव्य हैं। प्रत्येक द्रव्य में अनंत गुण हैं, जो अनादिनिधन हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि द्रव्य और गुणों का तो
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