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योगसार-प्राभृत भावार्थ :- इस श्लोक के भाव को स्पष्ट समझने के लिये समयसार की १९ से २२ पर्यन्त सब गाथाएँ, इनकी टीका एवं हिन्दी भावार्थ अवश्य देखिए। अचारित्र का स्वरूप -
हिंसने वितथे स्तेये मैथुने च परिग्रहे।
मनोवृत्तिरचारित्रं कारणं कर्मसंततेः ।।१३९।। अन्वय :- हिंसने वितथे स्तेये मैथुने परिग्रहे च मनोवृत्ति: अचारित्रं कर्मसंतते: कारणं।
सरलार्थ :- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों में मन की जो प्रवृत्ति होती है; उसे अचारित्र अर्थात् मिथ्याचारित्र कहते हैं, यह प्रवृत्ति, कर्म-संतति अर्थात् कर्म की उत्पत्ति, स्थिति तथा परंपरा का कारण है।
भावार्थ :- यहाँ अचारित्र का अर्थ मिथ्याचारित्र समझना, क्योंकि उसे कर्मसंतति का कारण कहा गया है । सम्यग्दृष्टि को असंयम होने पर भी वह कर्म की परम्परा का कारण नहीं बन सकता। यही भाव आगामी श्लोकों के अर्थ में भी ध्यान रखें। इस आस्रव अधिकार में ४० श्लोकों में से ३० श्लोकों में मिथ्यात्व के कारण से होनेवाले परिणामों का और आस्रव का कथन किया है। अब इस श्लोक में आस्रव के लिये जो दूसरा कारण अविरति है, उसका वर्णन प्रारंभ करते हैं। इन श्लोकों के अनुपात से भी पाठकों को समझ में आना चाहिए कि आस्रव में मुख्य कारण एक मिथ्यात्व ही है। मिथ्याचारित्र का स्वरूप -
रागतो द्वेषतो भावं परद्रव्ये शुभाशुभम् ।
आत्मा कुर्वन्नचारित्रं स्व-चारित्र-पराङ्गमुखः ।।१४०।। अन्वय :- परद्रव्ये रागत: द्वेषत: शुभाशुभं भावं कुर्वन् स्व-चारित्र-पराङ्गमुख: आत्मा अचारित्रं।
सरलार्थ :- परद्रव्य में रागरूप परिणाम के कारण अथवा द्वेषरूप परिणाम के कारण शुभ अथवा अशुभरूप भाव को करता हुआ आत्मा मिथ्याचारित्री होता है; क्योंकि वह उस समय अपने चारित्र से अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र से विमुख रहता है।
भावार्थ :- इस श्लोक का अर्थ स्पष्ट समझने के लिये २९वें श्लोक में आया हुआ विमूढः शब्द को यहाँ कर्तारूप से लेना चाहिए। जब अज्ञानी जीव परद्रव्य में प्रशस्त राग करता है तो शुभ अर्थात् पुण्यभाव होता है और जब द्वेष के कारण अशुभभाव करता है तो पापभाव होता है।
जब ज्ञानी जीव अपनी भूमिका के अनुसार परद्रव्य में शुभाशुभ भाव करता है, तब उसे मिथ्याचारित्री नहीं कहते, उस परिणाम को भी ज्ञानभाव ही कहते हैं और उसे ज्ञानी की कमजोरी/ अचारित्र मानी जाती है। इस कमजोरीरूप पुण्य-पाप के कारण ज्ञानी को आस्रव-बंध तो होता है;
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