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आस्रव अधिकार
मिथ्यात्व वृद्धि का कारण -
सचित्ताचित्तयोर्यावद्रव्ययोः परयोरयम् ।
आत्मीयत्व-मतिं धत्ते तावन्मोहो विवर्धते ।।११२।। अन्वय :- यावत् अयं (जीव:) सचित्त-अचित्तयोः परयोः द्रव्ययोः आत्मीयत्व-मतिं धत्ते तावत् मोहः विवर्धते।
सरलार्थ :- जब तक यह जीव चेतन-अचेतनरूप पर-पदार्थों में निजत्वबुद्धि/अपनेपन की बुद्धि रखता है अर्थात् पर पदार्थों को अपना समझता है, तब तक इस जीव का मोह अर्थात् मिथ्यात्व बढ़ता रहता है।
भावार्थ :- अज्ञानी को अपने आत्म-स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान तथा ज्ञान न होने से वह पर में अहंबुद्धि करता है, यह अहंबुद्धि ही मिथ्यात्व को बढ़ाती रहती है। ऐसा ही भाव आचार्य कुंदकुंद ने समयसार शास्त्र की गाथा २० में निम्नानुसार बताया है -
अहमेदं एदमहं अहमेदस्स म्हि अत्थि मम एदं।
अण्णं जं परदव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा ।। गाथार्थ :- जो पुरुष अपने से अन्य जो परद्रव्य सचित्त स्त्री पुत्रादिक, अचित्त धनधान्यादिक अथवा मिश्र ग्रामनगरादिक हैं - उन्हें यह समझता है कि मैं यह हूँ, यह द्रव्य मुझ स्वरूप है। (ऐसा झूठा आत्मविकल्प करनेवाला मोही है, मूढ़ है, अज्ञानी है।) ___ सात व्यसन एवं अति तीव्र हिंसादि पापों से नरक में गमन होता है और विपरीत मान्यतारूप श्रद्धान अर्थात् मिथ्यात्व, जो सातों व्यसनों से भी बड़ा पाप है - उससे जीव का गमन निगोद अवस्था में होता है। इतना ही नहीं अनंत संसार का कारण दर्शनमोह/मिथ्यात्व कर्म समय-समय बढ़ता ही रहता है। मिथ्यात्वरूप पाप का फल -
तेषु प्रवर्तमानस्य कर्मणामास्रवः परः।
कर्मास्रव-निमग्नस्य नोत्तारो जायते ततः ।।११३।। अन्वय :- तेषु (सचित्त-अचित्त-परद्रव्येषु) प्रवर्तमानस्य (जीवस्य) कर्मणाम् परः आस्रवः (जायते) । ततः कर्मास्रव-निमग्नस्य (जीवस्य) उत्तारः न जायते।
सरलार्थ :- चेतन-अचेतनरूप पर-पदार्थों में अपनेपन की बुद्धि से प्रवृत्ति को प्राप्त जीव को कर्मों का महा आस्रव होता है। इसलिए जो कर्मों के महा आस्रवों में डूबा रहता है, उस जीव का संसार से उद्धार नहीं हो सकता।
भावार्थ :- चारित्रमोहनीय कर्मोदय के निमित्त से होनेवाले क्रोधादिरूप परिणामों के कारण जीव को अधिक से अधिक मात्र ४० कोडाकोडी सागर का ही स्थितिबन्ध होता है। दर्शनमोहनीय
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