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योगसार-प्राभृत
सरलार्थ :- मिथ्यादर्शन, असंयम, कषाय और योग - ये चार परिणाम पाप के आस्रव में विशेषरूप से कारण हैं।
भावार्थ :- कर्म के आस्रव और बन्ध के कारण सामान्यतः एक ही प्रकार से यहाँ कहे गये हैं। समयसार गाथा १०९ और गोम्मटसार कर्मकाण्ड की गाथा ७८६ में भी ये ही कारण कहे गये हैं, जिन्हें हम यहाँ उद्धृत कर रहे हैं। समयसार की १०९वीं गाथा इसप्रकार है :
सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो।
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ।। गाथार्थ :-निश्चय से चार सामान्य प्रत्यय बन्ध के कर्ता कहे जाते हैं; वे मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय और योग जानना। और गोम्मटसार कर्मकाण्ड की ७८६वीं गाथा का पूर्वार्द्ध निम्नप्रकार है -
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होति। गाथार्थ :- मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग - ये चार मूल आस्रव हैं।
तत्त्वार्थ सूत्र (अध्याय ८, सूत्र १) में भी इन्हीं के साथ प्रमाद को पृथक् करते हुए बंध के पाँच हेतु कहे गये हैं - 'मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः।' अन्यत्र प्रमाद को कषाय में गर्भित किया जाता है।
इनमें से मिथ्यात्वादि चारों परिणामों को मोह अथवा मोह-राग-द्वेष अथवा कषाय भी कहा जाता है।
इन सब कारणों में मिथ्यात्व अर्थात् दर्शन मोह परिणाम ही प्रधान है। चारित्रमोह के परिणाम को ही असंयम (अविरमण), प्रमाद और कषाय के रूप में कहा गया है।
विपरीत मान्यता अर्थात् वस्तुस्वरूप के विरुद्ध मान्यता को मिथ्यात्व कहते हैं । निजात्मस्वरूप के अज्ञान से पर में अहंकार-ममकार ही मिथ्यात्व है। जीवादि सात तत्त्वों के अन्यथा श्रद्धान को मिथ्यात्व कहते हैं । यथार्थ देव-शास्त्र-गुरु को न मानकर रागी-द्वेषी देवी-देवताओं को मानना भी गृहीत मिथ्यात्व कहलाता है। मिथ्यात्व के स्वरूप को विशेष जानने के लिए पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट से प्रकाशित 'गुणस्थान-विवेचन' पुस्तक के मिथ्यात्व गुणस्थानवाले प्रकरण को देखना लाभदायक होगा।
पाँच इंद्रिय व मन के विषयों से तथा षट्कायिक जीवों के घात से विरत न होना ही अविरति है। पाँच इन्द्रिय, चार विकथा, चार कषाय, निद्रा व स्नेह - इन पंद्रह भेदों को प्रमाद कहा जाता है। अनन्तानुबन्धी आदि के भेद से क्रोधादि के सोलह भेद व हास्यादि नौ-नोकषायों को ही कषाय कहते हैं। मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को योग कहते हैं।
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