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आस्रव-अधिकार
आस्रव का सामान्य कारण -
शुभाशुभोपयोगेन वासिता योग-वृत्तयः।
सामान्येन प्रजायन्ते दुरितास्रव-हेतवः ।।११०।। अन्वय :- शुभ-अशुभ-उपयोगेन वासिता: योग-वृत्तयः सामान्येन दुरितास्रव-हेतवः प्रजायन्ते।
सरलार्थ :- शुभ तथा अशुभ उपयोग से रंजित अर्थात् शुभाशुभभावों में लगे हुए ज्ञान-दर्शन परिणाम से रंजित जो मन-वचन-कायरूप योगों की प्रवृत्तियाँ हैं, वे सामान्य से पापरूप (पुण्यपाप) कर्मों के आस्रव का कारण होती हैं।
भावार्थ :- यह योगसार प्राभृत अध्यात्म शास्त्र है। अतः इसमें शुभाशुभ उपयोग से संस्कारित योगों को पाप का कारण कहा है। यहाँ पुण्य और पाप - दोनों को पाप ही कहा है। वास्तव में वे जाय तो संसार के कारणरूप कर्मों को पुण्यरूप कहा ही नहीं जा सकता। इस कारण समयसार में पुण्य-पाप अधिकार की प्रथम गाथा में भी आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रश्न पूछा कि “कह तं होदि सुशीलं जं संसारं पवेसेदि?" वह कर्म सुशील कैसे हो सकता है, जो जीव को संसार में प्रवेश कराता है?
आचार्य समंतभद्र जो आद्य श्रावकाचार के प्रणेता हैं, उन्होंने भगवान की स्तुति करते समय स्वयम्भूस्तोत्र में भी कहा है - “दुरितमलकलङ्कमष्टकं निरूपम-योगबलेन निर्दहन् । - आपने पापरूप ज्ञानावरणादि आठ कर्मों को अपने अनुपम शुक्लध्यान के बल से नष्ट कर दिया है।"
आचार्य उमास्वामी ने व्रत के कारण होनेवाले पुण्यास्रव को तत्त्वार्थसूत्र के आस्रव अधिकार में स्थान दिया है। अतः पुण्य को मोक्ष का कारण माननेरूप भ्रम का निराकरण प्रत्येक साधक को होना ही चाहिए। मात्र योग से होनेवाले ईर्यापथास्रव को यहाँ गौण किया गया है। आस्रव के विशेष कारण -
मिथ्यादृक्त्वमचारित्रं कषायो योग इत्यमी।
चत्वारः प्रत्ययाः सन्ति विशेषेणाघसंग्रहे ।।१११।। अन्वय :- मिथ्यादृक्त्वं, अचारित्रं, कषायः (च) योगः इति अमी चत्वारः विशेषेण अघसंग्रहे प्रत्ययाः सन्ति।
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