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योगसार प्राभृत
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अर्थात् मिथ्यात्व परिणाम के कारण जीव प्रतिसमय ७० कोडाकोडी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबंध करता है ।
संक्षेप में बताना हो तो मात्र अचारित्ररूप क्रोधादि परिणामों से जीव संसार में मात्र अटकता है, उसका संसार से निकलना देरी से सही लेकिन निश्चित है। श्रद्धा की विपरीतता अर्थात् मिथ्यात्व के कारण ही जीव अनादिकाल से भटक रहा है और जबतक श्रद्धा यथार्थ नहीं होगी, तबतक भविष्य में भी अनन्तकाल पर्यन्त भटकता ही रहेगा । सम्यक्त्व की प्राप्ति से ही भटकना बंद होगा, अतः जीव का प्रमुख कर्त्तव्य सम्यक्त्व प्राप्त करना ही है। श्रद्धा में सुधार अर्थात् समीचीनपना ही संसार से उद्धार का प्रारम्भ है ।
मिथ्यात्व - रक्षक परिणाम
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मयीदं कार्मणं द्रव्यं कारणे ऽत्र भवाम्यहम् ।
यावदेषा मतिस्तावन्मिथ्यात्वं न निवर्तते । । ११४ । ।
अन्वय :- • इदं कार्मणं द्रव्यं मयि (अस्ति) । अत्र कारणे अहं (निमित्त:) भवामि । (इत्थं) यावत् (जीवस्य) एषा मति: (भवति) तावत् मिथ्यात्वं न निवर्तते ।
सरलार्थ :- कर्मजनित ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, मोह-राग-द्वेषादि भावकर्म और शरीरादि नोकर्मरूप पदार्थसमूह मुझ में है, इन द्रव्यकर्मादिक का कारण मैं हूँ; यह बुद्धि जबतक जीव की बनी रहती है, तबतक मिथ्यात्व नहीं छूटता ।
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भावार्थ - आत्मा मात्र ज्ञाता ही है; यह स्वीकृति ही मिथ्यात्व को भगाने का मूलभूत उपाय है ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, मोहादि भावकर्म और शरीरादि नोकर्मों का मैं ज्ञाता ही हूँ । इनका आत्मा कर्ता हर्ता अथवा कारण नहीं है, ऐसा निर्णय आवश्यक है। इस विषय का खुलासा समयसार गाथा १९ एवं उसकी टीका तथा भावार्थ में आया है, वहाँ से अवश्य देखें ।
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आचार्य अमृतचन्द्र भी पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक १४ में लिखते हैं " एवमयं कर्मकृतैर्भावैरसमाहितोऽपि युक्त इव । प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभासः स खलु भवबीजम् ॥
श्लोकार्थ : :- इसप्रकार यह आत्मा कर्मकृत रागादि अथवा शरीरादि भावों से संयुक्त न होने पर भी अज्ञानी जीवों को संयुक्त जैसा प्रतिभासित होता है और वह प्रतिभास ही निश्चय से संसार का बीज है ।'
मिथ्यात्व - पोषक परिणाम
आसमस्मि भविष्यामि स्वामी देहादि - वस्तुनः ।
मिथ्या - दृष्टेरियं बुद्धिः कर्मागमन - कारिणी । । ११५ । ।
अन्वय :
- (अहं) देहादि - वस्तुन: स्वामी आसम्, अस्मि, भविष्यामि - मिथ्यादृष्टे : इयं बुद्धिः कर्मागमन-कारिणी (भवति) ।
[C/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/92]