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अजीव अधिकार
कार्य होता है।
इसप्रकार यह सिद्ध किया कि पुद्गलकर्म के उदय के निमित्त से होनेवाले चैतन्य के विकार भी जीव नहीं, पुद्गल हैं। गुणस्थान संबंधी विभिन्न मान्यता -
देहचेतनयोरैक्यं मन्यमानैर्विमोहितः।
एते जीवा निगद्यन्ते न विवेक-विशारदैः ।।९७।। अन्वय :- देहचेतनयो: ऐक्यं मन्यमानैः विमोहितैः एते (त्रयोदश-गुणाः) जीवा: निगद्यन्ते; न विवेक-विशारदैः।
सरलार्थ :- शरीर और आत्मा इन दोनों को एक माननेवाले मोहीजन गुणस्थानों को जीव कहते हैं अर्थात् मानते हैं; परन्तु भेदविज्ञान में निपुण विवेकी जन गुणस्थानों को पुद्गलरूप अजीव बतलाते हैं।
भावार्थ :- गुणस्थानों को जिन आचार्यों ने जीव अथवा जीव की अवस्थायें कहा हैं, वह कथन अशुद्ध निश्चयनय अर्थात् व्यवहारनय की मुख्यता से है। यदि व्यवहारनय से किये गये कथन को हम सर्वथा सत्य ही स्वीकार कर लेते हैं/मान लेते हैं तो मिथ्यात्वरूप पाप का महादोष उत्पन्न होता है, इसका अर्थ यह हुआ कि व्यवहारनय से किया गया कथन मात्र तात्कालिक प्रयोजन की अपेक्षा से ही सत्य है, वह त्रैकालिक सत्य नहीं हो सकता।
आत्मा के त्रैकालिक सत्य-स्वरूप का कथन तो अध्यात्म में आता है, जिसके श्रद्धान, ज्ञान और ध्यान से निश्चयधर्म प्रगट होता है और क्रम से शाश्वत अर्थात् मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।
इस विषय के सन्दर्भ में हमें समयसार गाथा २७ को टीकासहित देखना चाहिए, जो निम्नप्रकार है -
"ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को।
ण दु णिच्छयस्य जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो।। गाथार्थ :- व्यवहारनय तो यह कहता है कि जीव और देह एक ही है; किन्तु निश्चयनय के अभिप्राय से जीव और देह कभी भी एक पदार्थ नहीं हैं।
टीका :- जैसे इस लोक में सोने और चांदी को गलाकर एक कर देने से एक पिण्ड का व्यवहार होता है, उसीप्रकार आत्मा और शरीर की परस्पर एक क्षेत्र में रहने की अवस्था होने से एकपने का व्यवहार होता है । यो व्यवहारमात्र से ही आत्मा और शरीर का एकपना है, परन्तु निश्चय से एकपना नहीं है; क्योंकि निश्चय से देखा जाये तो, जैसे पीलापन आदि और सफेदी आदि जिनका स्वभाव है, ऐसे सोने और चांदी में अत्यन्त भिन्नता होने से उनमें एकपदार्थपने की असिद्धि है; इसलिए
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