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योगसार प्राभृत
अनेकत्व ही है। इसीप्रकार उपयोग और अनुपयोग जिनका स्वभाव है, ऐसे आत्मा और शरीर में अत्यन्त भिन्नता होने से एकपदार्थपने की असिद्धि है; इसलिये अनेकत्व ही है - ऐसा यह प्रगट विभाग है । '
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प्रमत्तादि गुणस्थानों की वंदना से चेतन मुनि वन्दित नहीं प्रमत्तादिगुणस्थानवन्दना या विधीयते ।
न तया वन्दिता सन्ति मुनयश्चेतनात्मकाः ।। ९८ ।।
अन्वय :- या प्रमत्तादि-गुणस्थान- वन्दना विधीयते तया चेतनात्मकाः मुनयः न वन्दिताः
सन्ति ।
सरलार्थ : :- प्रमत्त- अप्रमत्तादि गुणस्थानों से लेकर अयोग केवली पर्यंत गुणस्थानों में विराजमान गुरु तथा परमगुरुओं की स्तुति गुणस्थान द्वारा करने पर भी चेतनात्मक महामुनीश्वरों की वास्तविक स्तुति नहीं होती (केवल जड़ की ही स्तुति होती है। )
भावार्थ: :- • इस श्लोक में प्रमत्तादि गुणस्थानों की वंदना का अर्थ भावलिंगी मुनिराज तथा परमात्मा की वन्दना या स्तुति ही समझना चाहिए । इस स्तुति को अर्थात् अरहंत तथा साधुओं प्रमत्तादि गुणस्थानमूलक गुणों की स्तुति को मात्र देह की / अचेतन की स्तुति कहा है। इसे ही व्यवहारनय से की गई स्तुति कहा है। अरहंतादि के गुणों की स्तुति होने पर भी इसे व्यवहार इसलिए कहा है क्योंकि वह स्तुति पर की अर्थात् पराश्रित व भेदमूलक है।
इस विषय को विस्तार से समझने के लिये समयसार गाथा २६ से ३० पर्यंत के प्रकरण को टीका व भावार्थ सहित सूक्ष्मता से पढ़ना चाहिए।
प्रमत्तादि गुणस्थानों की वंदना मात्र पुण्यबंध का कारण
परं शुभोपयोगाय जायमाना शरीरिणाम् । ददाति विविधं पुण्यं संसारसुखकारणम् । । ९९।।
अन्वय :- परं शुभोपयोगाय जायमाना ( प्रमत्तादि-गुणस्थान - वन्दना) शरीरिणां संसारसुखकारणं विविधं पुण्यं ददाति ।
सरलार्थ :- परन्तु वह प्रमत्तादि गुणस्थानों की, की गई वंदना उत्कृष्ट शुभोपयोग के लिये निमित्तरूप होती हुई संसारस्थित जीवों को अनेक प्रकार का सर्वोत्तम पुण्य प्रदान करती है, जो उत्कृष्ट संसार सुखों का कारण होती है।
भावार्थ :- निज ज्ञायक आत्मा में मग्नतारूप अवस्था न होने के कारण प्रमत्तादि महापुरुषों के गुणानुराग से की गई स्तुति-वंदना वह शुभोपयोगरूप होने के कारण विशिष्ट पुण्यबन्ध का ही क है, धर्म का कारण नहीं है ।
व्यवहारस्तुति वीतरागधर्ममय नहीं होने से संवर-निर्जरा का कारण नहीं है; प्रत्युत कर्मबन्ध का
[C/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/82]