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अजीव अधिकार
व्यवहारनय से कहा जाता है, उसीप्रकार क्रोधादि कषायभावों के द्वारा अर्थात् मोह-राग-द्वेष आदि विभावभावों से किया गया कर्म जीव के द्वारा किया गया, ऐसा व्यवहारनय से कहा जाता है।
भावार्थ :- इसी सन्दर्भ में समयसार गाथा १०६ और उसकी टीका पठनीय है। विगत श्लोक में कर्तृत्वं शब्द का अर्थ निमित्त-नैमित्तिकपना किया है, उसकी संगति भी इस श्लोक के विषय से स्पष्ट होती है। कर्मजनित देहादिक विभाव अचेतन हैं -
देह-संहति-संस्थान-गति-जाति-पुरोगमाः।
विकाराः कर्मजाः सर्वे चैतन्येन विवर्जिताः ।।१४।। अन्वय :- देह-संहति-संस्थान-गति-जाति-पुरोगमाः सर्वे विकाराः कर्मजा: चैतन्येन विवर्जिताः।
सरलार्थ :- संसारी जीव के संयोग में पाये जानेवाले शरीर, संहनन, संस्थान, गति, जाति आदिरूप (पुरोगमा शब्द का अर्थ इत्यादि होता है) जितने भी विकार अर्थात् विभाव हैं, वे सर्व नामकर्म के निमित्त से उत्पन्न हुए हैं एवं चेतना रहित हैं।
भावार्थ :- इस श्लोक में नामकर्मोदय जनित कार्य को अचेतन कहा है। इसमें मर्म की बात यह है कि नामकर्मोदयजन्य ९३ प्रकृतियाँ हैं, उनमें ६२ प्रकृतियाँ पुद्गलविपाकी, चार प्रकृतियाँ क्षेत्रविपाकी और २७ प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं; उन सबको चेतन रहित कहा है। जीवविपाकी कर्म का फल जीव के परिणामों में होता है, उनमें तीर्थंकर प्रकृति आदि भी हैं। उनको भी चेतनतारहित कहा है और कर्मज बताया है। जिन पर्यायों को आगम जीव कहता है, उन्हीं पर्यायों को अध्यात्म चेतनतारहित - जड भी कहता है।
यही विषय पंचास्तिकायसंग्रह गाथा १२६ तथा उसकी टीका में भी आया है। गुणस्थान पुद्गल-निर्मित है -
मिथ्यादृक् सासनो मिश्रोऽसंयतो देशसंयतः। प्रमत्त इतरोऽपूर्वस्तत्त्वज्ञैरनिवृत्तकः ।।१५।। सूक्ष्मः शान्तः परः क्षीणो योगी चेति त्रयोदश।
गुणा: पौद्गलिकाःप्रोक्ता:कर्मप्रकृतिनिर्मिताः ।।१६।। अन्वय :- तत्त्वज्ञैः मिथ्यादृक्, सासनः, मिश्रः, असंयतः, देशसंयतः, प्रमत्तः, इतरः, अपूर्वः, अनिवृत्तकः, सूक्ष्मः, शान्तः, परःक्षीणः, योगी च इति त्रयोदशः गुणा: पौद्गलिकाः कर्मप्रकृतिनिर्मिताः प्रोक्ताः।
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