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योगसार प्राभृत
शब्द का अर्थ पाठक को आगे-पीछे के प्रकरणों को ध्यान में रखते हुए सावधानी से समझना आवश्यक होता है ।
पंचास्तिकायसंग्रह की ५९ एवं ६० गाथा तथा उनकी टीका भी यहाँ द्रष्टव्य है :
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"भावो जदि कम्मकदो अत्ता कम्मस्स होदि किध कत्ता ।
कुदि अत्ता किंचि वि मुत्ता अण्णं सगं भावं ॥
गाथार्थ :- यदि भाव (जीवभाव) कर्मकृत हों तो आत्मा कर्म का ( द्रव्यकर्म का ) कर्ता होना चाहिये, वह तो कैसे हो सकता है; क्योंकि आत्मा तो अपने भाव को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं
करता ।
टीका :- कर्म को जीवभाव का कर्तृत्व होने के सम्बन्ध में यह पूर्वपक्ष है।
यदि औदयिकादिरूप जीव का भाव, कर्म द्वारा किया जाता हो, तो जीव उसका (औदयिकादिरूप जीवभाव का) कर्ता नहीं है, ऐसा सिद्ध होता है । और जीव का अकर्तृत्व तो इष्ट (मान्य) नहीं है । इसलिये, शेष यह रहा कि जीव, द्रव्यकर्म का कर्ता होना चाहिये। लेकिन वह तो कैसे हो सकता है ? क्योंकि निश्चयनय से आत्मा अपने भाव को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं करता ।
भावो कम्मणिमित्तो कम्मं पुण भावकारणं हवदि ।
ण दु तेसिं खलु कत्ता ण विणा भूदा दु कत्तारं ॥
अन्यव:- जीवभाव का कर्म निमित्त है और कर्म का जीवभाव निमित्त है, परन्तु वास्तव में वे एक-दूसरे के कर्ता नहीं हैं; कर्ता के बिना होते हैं ऐसा भी नहीं है ।
टीका :- यह, पूर्व सूत्र में (५९वीं गाथा में) कहे हुए पूर्वपक्ष के समाधानरूप सिद्धान्त है।
व्यवहार से निमित्तमात्रपने के कारण जीवभाव का कर्म कर्ता है ( औदयिकादि जीवभाव का कर्ता द्रव्यकर्म है), कर्म का भी जीवभाव कर्ता है; निश्चय से तो जीवभावों का न तो कर्म कर्ता है और न कर्म का जीवभाव कर्ता है। वे (जीवभाव और द्रव्यकर्म) कर्ता के बिना होते हैं ऐसा भी नहीं है; क्योंकि निश्चय से जीव परिणामों का जीव कर्ता है और कर्म परिणामों का कर्म (पुद्गल) कर्ता है ।"
ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म को जीवकृत कहा जाता है -
कोपादिभिः कृतं कर्म जीवेन कृतमुच्यते ।
पदातिभिर्जितं युद्धं जितं भूपतिना यथा । । ९३।।
अन्वय :- यथा पदातिभि: जितं युद्धं भूपतिना जितं (उच्यते तथा एव) कोपादिभिः कृतं कर्म जीवेन कृतं उच्यते ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार योद्धाओं के द्वारा जीता गया युद्ध राजा के द्वारा जीता गया, ऐसा
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