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अजीव अधिकार
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सकता है? अर्थात् कर्ता नहीं हो सकता; क्योंकि जीव तो अपने ज्ञान-दर्शन आदि निज परिणामों को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं कर सकता ।
भावार्थ :- आगे के श्लोक में सब स्पष्ट किया है। इस श्लोक के प्रथम चरण में और चतुर्थ चरण में भाव शब्द आया है। प्रथम भाव शब्द का अर्थ रागादि-विभाव भाव और द्वितीय भाव का अर्थ ज्ञान-दर्शनरूप परिणाम करना चाहिए; यहाँ संदर्भ के अनुसार यही अर्थ यथार्थ प्रतीत होता है ।
इस श्लोक में जीव मात्र अपने ज्ञान - दर्शनरूप पर्यायों का कर्ता है; इस विषय को बताना है । शुद्धनय की अपेक्षा से प्रत्येक जीव मात्र ज्ञातादृष्टा ही है। आचार्य कुंदकुंद ने समयसार गाथा ३८ एवं ७३ में जीव को मात्र ज्ञाता-दृष्टा ही बताया है। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र शास्त्र में अध् दूसरा सूत्र ८ में उपयोगो लक्षणम् इस सूत्र से भी जीव के ज्ञाता - दृष्टापन को ही स्पष्ट किया है।
जीव ज्ञानावरणादि आठ अथवा एक सौ अड़तालीस द्रव्यकर्मों का कर्ता नहीं हो सकता; क्योंकि ये द्रव्यकर्म तो पुद्गलमय जड़ है और जीव चेतनमय है । फिर प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का कर्ता कौन है ? इसका उत्तर निमित्त की मुख्यता से अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से जीव के रागादि भाव ही जड़कर्मों के कर्ता हैं; यही समझना आवश्यक है; क्योंकि विभाव भावों के साथ द्रव्यकर्मों की व्याप्ति है । द्रव्यकर्म और भावकर्म में परस्पर निमित्तनैमित्तिकपना
कर्मतो जायते भावो भावतः कर्म सर्वदा ।
इत्थं कर्तृत्वमन्योन्यं द्रष्टव्यं भाव - कर्मणोः ।। ९२ ।।
अन्वय :- - कर्मतः भावः जायते भावत: सर्वदा कर्म (जायते) । इत्थं भाव-कर्मणोः अन्योन्यं कर्तृत्वं द्रष्टव्यम् ।
सरलार्थ :- मोहनीय नामक द्रव्यकर्म के उदय के निमित्त से मोह - राग-द्वेष आदि जीव के विकारी परिणाम सदा उत्पन्न होते हैं और मोह-राग-द्वेष आदि जीव के विकारी परिणामों के निमित्त से सदा ज्ञानावरणादि आठ अथवा एक सौ अडतालीस प्रकृतिरूप द्रव्यकर्म उत्पन्न होते हैं । इसतरह द्रव्यकर्म और भावकर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिकपना जानना चाहिए।
भावार्थ :• श्लोक का मूल शब्द जो कर्तृत्वं है, उसका अर्थ सरलार्थ में कर्तापना न करके निमित्तनैमित्तिकपना किया है, वह आचार्यों के अभिप्राय के अनुसार ही किया है । ग्रन्थकार ने इसी अधिकार के श्लोक क्रमांक १८ में कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का कर्ता नहीं है, यह कहा है। श्लोक क्रमांक २८, २९, ३० में भी यदि जीव और कर्म दोनों परस्पर एक-दूसरे का कर्ता बनेंगे तो क्या-क्या आपत्तियाँ आयेंगी उसका स्पष्टीकरण कर दिया है। श्लोक ३१ में पुद्गलमय द्रव्यकर्म और मोह - राग-द्वेषादि भावकर्म में निमित्तपने का ज्ञान कराया । इन सबका यथार्थ अर्थ समझने के लिये कर्तृत्व शब्द का अर्थ निमित्तनैमित्तिकपना ही योग्य सिद्ध होता है । अथवा व्यवहार से कर्तापना ऐसा अर्थ भी किया जा सकता है।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/77]