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योगसार-प्राभृत
करेगा?
उत्तर - नहीं, यदि जीव ज्ञाता-दृष्टा रहनेरूप पुरुषार्थ करे तो; कर सकता है। कर्म के उदय के काल में जीव मोहादि करने में बाध्य है, मजबूर है, ऐसा बिल्कुल नहीं । जीव शुद्धात्म-भावना के बल से मोहरूप परिणाम न करे, ऐसा प्रसंग बन सकता है।
प्रश्न - आपके कथन के लिये कुछ शास्त्राधार भी है?
उत्तर – हाँ, हाँ, अवश्य । आचार्य जयसेन प्रवचनसार गाथा ४६ की टीका में स्पष्ट लिखते हैं - द्रव्यमोहोदयेऽअपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बन्धः न भवति । यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बन्धो भवति तर्हि संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात् सर्वदैव बंधः एव, न मोक्षः इति अभिप्रायः । अर्थ - द्रव्यमोह का उदय होने पर भी यदि शुद्धात्मभावना के बल से भाव मोहरूप परिणमन नहीं करता तो बंध नहीं होता। यदि पुनः कर्मोदय मात्र से बंध होता तो संसारियों के सदैव कर्म के उदय की विद्यमानता होने से सदैव (सर्वदा) बंध ही होगा, (कभी भी) मोक्ष नहीं हो सकेगा - यह अभिप्राय है।"
प्रश्न – कर्मोदय हो और जीव परिणाम न करे, ऐसा हो सकता है; यह आपने शास्त्राधार से स्पष्ट किया, लेकिन क्या ऐसा भी संभव है कि जीव मोह परिणाम करे और तदनुसार मोहकर्म का बन्ध न हो? शास्त्राधार से बताइए। ____ उत्तर - हाँ, ऐसा भी हो सकता है। जब मुनिराज के सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ का परिणाम तो होता है; तथापि नया सूक्ष्म लोभ का बंध नहीं होता । अन्य कर्मों का बन्ध तो होता है। __पंचास्तिकाय संग्रह गाथा १०३ की टीका का अंश शास्त्राधाररूप से अति महत्त्वपूर्ण है, जो इसप्रकार है - “वास्तव में जिसका स्नेह (रागादिरूप चिकनाहट) जीर्ण होता जाता है, ऐसा जघन्य स्नेह गुण के (स्पर्श गुण की चिकनाहटरूप पर्याय) सन्मुख वर्तते हुए परमाणु की भाँति भावी बंध से पराङ्मुख वर्तता हुआ, पूर्व बंध से छूटता हुआ, अग्नि-तप्त जल की दुःस्थिति समान जो दुःख, उससे परिमुक्त होता है।” (जिसप्रकार जघन्य चिकनाहट के सन्मुख वर्तता हुआ परमाणु भावी बंध से पराङ्मुख है; उसीप्रकार जिसके रागादि जीर्ण होते जाते हैं ऐसा पुरुष भावी बंध से पराङ्मुख है।) जीव मोहादि परिणामों का अकर्ता -
__ कर्म चेत्कुरुते भावो जीवः कर्ता तदा कथम् ।
न किंचित् कुरुते जीवो हित्वा भावं निजं परम् ।।११।। अन्वय :- चेत् (रागादि) भावः कर्म कुरूते, तदा जीवः (कर्मणः) कर्ता कथं (भवति) जीवः निजभावं हित्वा किंचित् परं न कुरूते ।
सरलार्थ :- यदि यह बात मान ली जाय कि मोह-राग-द्वेषादि विकारी/विभाव परिणाम ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म का कर्ता/निर्माता है, तो जीव ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों का कर्ता कैसे हो
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