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अजीव अधिकार
जीव, स्वभाव से कर्मों को करे तो आपत्ति
जीवः करोति कर्माणि यद्युपादानभावतः । चेतनत्वं तदा नूनं कर्मणो वार्यते कथम् ||८७।।
अन्वय :- - यदि जीव: उपादानभावत: कर्माणि करोति तदा कर्मण: चेतनत्वं नूनं कथं वार्यते ? सरलार्थ :- यदि जीव अपने उपादान भाव से अर्थात् निजशक्ति से पुद्गलमय ज्ञानावरणादि आठों कर्मों को करेगा, तब कर्म के चेतनपने का निषेध निश्चय से कैसे किया जा सकता है? अर्थात् नहीं किया जा सकता, कर्मों में चेतनपना आ जायेगा ।
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भावार्थ • विगत श्लोक में जीव तथा पुद्गल - कर्म की जिस स्वभाव / व्यवस्थिति का उल्लेख किया गया है, उसे न मानकर यदि यह कहा जाय कि जीव अपने उपादान-भाव से कर्मों का कर्ता है निमित्तरूप से नहीं - तो फिर कर्मों के चेतनत्व का निषेध नहीं किया जा सकता; क्योंकि उपादान-कारण जब चेतन होगा तो उसके कार्य को भी चेतन मानना ही पड़ेगा ।
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एक द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का कार्य करने की बात वस्तु-व्यवस्था को ही मान्य नहीं; तथापि जिनवाणी में व्यवहारनय की मुख्यता से ऐसा कथन किया जाता है, वह उपचरित असद्भूतव्यवहारन का कथन समझना चाहिए ।
जीव यदि उपादानभाव से कर्मों को करे तो कर्मों में चेतनपना आना स्वाभाविक है; क्योंकि जीव द्रव्य अपने स्वभाव को अर्थात् चेतनपने को अपनी पर्यायों में क्यों नहीं करेगा? इसका स्पष्ट आशय यह है कि जीव पुद्गलमय द्रव्यकर्मों को करता ही नहीं है - कर सकता ही नहीं है ।
जीव के कर्तापने के यथार्थ ज्ञान के लिये समयसार गाथा १०० तथा उसकी टीका एवं भावार्थ को भी पाठक अवश्य पढ़ें ।
कर्म, स्वभाव से जीव को करे तो आपत्ति
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यद्युपादानभावेन विधत्ते कर्म चेतनम् ।
अचेतनत्वमेतस्य तदा केन निषिध्यते ॥ ८८ ॥
अन्वय :- यदि कर्म उपादान - भावेन चेतनं विधत्ते तदा एतस्य (चेतन-जीवस्य ) अचेतनत्वं केन निषिध्यते ?
सरलार्थ :- यदि कर्म अपने उपादानभाव से / अन्तरंग शक्ति से चेतन अर्थात् जीव का निर्माण करता है तो इस चेतनरूप जीव के अचेतनपने / जडपने के प्रसंग का निषेध कैसे किया जा सकता है? अर्थात् निषेध नहीं किया जा सकता ।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/73]