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योगसार-प्राभृत
भावार्थ :- कर्मों की विविध प्रकृति-प्रदेश-स्थिति-अनुभागरूप विचित्रता भी जीवकृत नहीं है, पुद्गलकृत ही है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि ग्रन्थकार आचार्य अमितगति ने पंचास्तिकाय संग्रह गाथा ६६ का पूर्ण भाव इस श्लोक में दिया है।" जीव और कर्म की स्वतंत्रता -
कर्मभावं प्रपद्यन्ते न कदाचन चेतनाः।
कर्म चैतन्यभावं वा स्वस्वभावव्यवस्थितेः ।।८६।। अन्वय :- स्व-स्वभाव-व्यवस्थिते: चेतना: कदाचन कर्मभावं न प्रपद्यन्ते वा कर्म (अपि तथा एव) चैतन्यभावं (न प्रपद्यते)।
सरलार्थ :- अपने-अपने स्वभाव में सदा व्यवस्थित/स्थिर/एकरूप रहने के कारण जीव कभी भी कर्मपने को प्राप्त नहीं होते । अपने-अपने स्वभाव में सदा व्यवस्थित रहने के कारण कर्म कभी भी जीवपने को प्राप्त नहीं होते।
भावार्थ :- संसारी जीव और अष्ट कर्मों में अथवा जीव की पर्याय और कर्मरूप पर्याय में निमित्तनैमित्तिक संबंध बताने के बाद भी आचार्य इस श्लोक द्वारा इन दोनों की पूर्ण स्वतंत्रता को पुनः बता रहे हैं। अज्ञानी जीव निमित्तनैमित्तिक संबंध जानते हुए भी जीव और कर्मों को पूर्ण स्वतंत्र नहीं मानते - परस्पर में परतंत्र ही मानते हैं। अतः अज्ञानी की मिथ्या मान्यता छुड़ाने का यहाँ प्रयास किया है।
इसी विषय को समझने के लिये पंचास्तिकाय संग्रह ग्रंथ की गाथा ६१ एवं ६२ तथा इनकी टीका अतिशय उपयोगी है, जिनमें षट्कारक का कथन अति महत्त्वपूर्ण है । पाठक इस संदर्भ में उक्त प्रकरण को सूक्ष्मता से अवश्य पढ़ें। __श्लोक में जीव के लिये चेतनाः शब्द को बहुवचन में रख दिया है। इससे भी हमें यह अर्थ समझना चाहिए कि अनंत संसारी जीवों में से एक भी जीव कर्मपने नहीं हुआ है और न होगा।
कर्मसहित अर्थात् संसारी जीव पराधीन/कर्माधीन रहते हैं; मात्र सिद्ध भगवान ही स्वतंत्र रह सकते हैं; ऐसी मिथ्या मान्यतावालों को भी इसमें अत्यन्त स्पष्टरूप से समझाया है। ___ एक जीव के साथ अनंतानंत कर्म अनादिकाल से रहे हैं; तथापि एक जीव को भी, यहाँ तक कि अभव्य को भी कर्मों ने कर्मरूप अर्थात् जडरूप नहीं किया, यह भी हमें समझना चाहिए।
कर्म को बलवान माननेरूप मिथ्या भ्रांति का भी जिज्ञासु इस कथन से सहज निराकरण कर सकते हैं।
एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं कर सकता, यह जिनवाणी का मर्म है।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/72]