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जीव अधिकार
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अमितगति ने श्लोक ५३ से ५८ पर्यंत मात्र ६ श्लोक में बताने का सफल प्रयास किया है। इसलिए पाठकों से निवेदन हैं कि इस विषय के मर्म को समझने के लिये समयसार के उक्त प्रकरण को समग्र रूप से जरूर देखें । साथ ही गाथा ४९ और उसकी समग्र टीका भी देखना न भूलें। निज शुद्धात्मा के ध्यान से मुक्ति -
(मालिनी) गलित-निखिल-राग-द्वेष-मोहादि-दोष: सततमिति विभक्तं चिन्तयन्नात्मतत्त्वम् । गतमलमविकारं ज्ञान-दृष्टि-स्वभावं
जनन-मरण-मुक्तं मुक्तिमाप्नोति योगी।।५९।। अन्वय :- गतमलं अविकारं जनन-मरण-मुक्तं विभक्तं ज्ञान-दृष्टि-स्वभावं इति आत्मतत्त्वं सततं चिन्तयन् गलित-निखिल-राग-द्वेष-मोहादि-दोष: योगी मुक्तिं आप्नोति।
सरलार्थ :- जो ज्ञानावरणादि कर्मरूपी मल से रहित है, रागादि विकारी भावों से शून्य है, जन्म-मरण से मुक्त है और विभक्त अर्थात् परपदार्थों से भिन्न ज्ञान-दर्शन स्वभावमय है - ऐसे निजात्म तत्त्व को सतत अर्थात् निरंतर ध्याता हुआ जो योगी पूर्णतः राग-द्वेष-मोह आदि दोषों से रहित हो जाता है, वह मुक्ति को प्राप्त करता है।
भावार्थ :- इस श्लोक में तीन विषयों को आचार्य ने स्पष्ट किया है :
प्रथम विषय है - आत्मतत्त्व का अनादि-अनंत शुद्ध स्वरूप, जिसका ध्यान योगी को करना चाहिए। इसतरह आत्मतत्त्व का स्वरूप समयसार. नियमसार परमात्मप्रकाश.योगसार.समाधिशतक. इष्टोपदेश आदि ग्रंथों में भी बताया है; मुमुक्षु को इसे प्रथम जानना आवश्यक है।
दूसरा विषय - साधक योगी शुद्धात्मा के ध्यान से जैसे हो जाते हैं, वैसा उनका स्वरूप स्पष्ट किया है। आत्मध्यान से साधक योगी वीतराग होते हैं अर्थात् मुक्ति प्राप्त करने योग्य हो जाते हैं।
तीसरा विषय - साधक का साध्य पूर्ण वीतरागता प्राप्त हो जाने के बाद भी पुनः अंतर्मुहूर्त शुद्धात्मा का ध्यान करते रहने पर केवलज्ञान प्राप्त करके सकल परमात्मा बन जाते हैं। सकल परमात्मा को ही अरहंत कहते हैं। तदनंतर यथायोग्य काल में शेष चार अघाति कर्मों का क्षय करके सिद्धावस्था अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है।
इसतरह एक ही श्लोक में आत्मस्वरूप, उसकी साधना और साध्य मुक्ति को बताकर जीवाधिकार
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