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योगसार-प्राभृत
सरलार्थ :
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- गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि बीस प्ररूपणाएँ जीव के कर्म-संबंध से उत्पन्न होनेवाले भाव हैं, वे शुद्ध जीव के लक्षण नहीं हैं ।
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भावार्थ :- गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा और चौदह मार्गणाएँ एवं उपयोग इन सबको बीस प्ररूपणा कहते हैं । सामान्य और विशेष की अपेक्षा गुणस्थानादि बीसों में पर्याप्त और अपर्याप्त विशेषणों से विशेषित करके जीवों की जो परीक्षा की जाती है, उसे प्ररूपणा कहते हैं ।
प्ररूपणाओं का कथन षट्खंडागम, गोम्मटसार, पंचसंग्रह आदि करणानुयोग के बड़े-बड़े ग्रंथों में विस्तार के साथ किया है। यहाँ द्रव्यानुयोग में प्ररुपणाएँ शुद्धजीव का लक्षण नहीं है; यह बता रहे हैं । इस कथन की हमें यथायोग्य विवक्षा स्वीकार करना चाहिए। विस्तार में जाना आगम है और समेटना अर्थात् संक्षेप में आत्मस्वरूप को समझना अध्यात्म है । अतः यहाँ जीवतत्त्व का हमें ज्ञान तथा श्रद्धान करना है; इसलिए समेटने का काम करना आवश्यक है। बीस प्ररूपणाएँ जीव का लक्षण नहीं हैं, जीव का लक्षण तो मात्र जानना है, ऐसा आचार्य अमितगति यहाँ समझा रहे हैं । क्षायोपशमिक ज्ञानादि भाव शुद्धजीव का स्वरूप नहीं
क्षायोपशमिका: सन्ति भावा ज्ञानादयोऽपि ये ।
स्वरूपं तेऽपि जीवस्य विशुद्धस्य न तत्त्वतः ।। ५८ ।।
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अन्वय :- ये ज्ञानादयः अपि क्षायोपशमिका: भावा: ते अपि विशुद्धस्य जीवस्य तत्त्वतः स्वरूपं न सन्ति ।
सरलार्थ :- जो ज्ञानादिक गुणों की क्षायोपशमिक भावरूप पर्यायें/अवस्थाएँ हैं; वे सभी निश्चयनय की अपेक्षा से शुद्ध जीव का स्वरूप नहीं हैं ।
भावार्थ :- इस श्लोक में आचार्य क्षायोपशमिक ज्ञानादिक भावों/परिणामों को शुद्ध जीव का स्वरूप नहीं है; ऐसा बता रहे हैं ।
मात्र चार घाति कर्मों में ही क्षयोपशम घटित होता है, अन्य कर्मों में नहीं । ज्ञान, दर्शन और दानादि पाँच लब्धि के लिये कर्मों का क्षयोपशम अज्ञानी और ज्ञानी - दोनों को होता है। मोहनीय कर्म में क्षयोपशम मात्र साधक जीवों के ही होता है। इनका भी यहाँ शुद्ध जीव के स्वरूप में निषेध किया है।
इस विषय को समयसार में गाथा ५० से ६८ पर्यंत १८ गाथाओं में अनेक युक्तियों एवं तर्कों से स्पष्ट किया गया है । इतना ही नहीं पंडित श्री जयचंदजी छाबडा ने भी भावार्थ में प्रश्नोत्तर द्वारा इसे और भी स्पष्ट किया है।
वहाँ द्रव्यकर्म, भावकर्म तथा नोकर्मों के २९ परिणामों को जीव के नहीं हैं, यह एकसाथ बताया । एक अपेक्षा से जीव-अजीवाधिकार का मर्म ही इस प्रकरण में समाहित है। इसे ही आचार्य
[C/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/54]