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जीव अधिकार
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स्वलक्षणभूत दुग्धत्व गुण के द्वारा व्याप्त होने से दूध जल से अधिकपने से प्रतीत होता है; इसलिए, जैसा अग्नि का उष्णता के साथ तादात्म्यस्वरूप सम्बन्ध है, वैसा जल के साथ दूध का सम्बन्ध न होने से, निश्चय से जल, दूध का नहीं है; इसप्रकार वर्णादिक पुद्गलद्रव्य के परिणामों के साथ मिश्रित इस आत्मा का पुद्गलद्रव्य के साथ परस्पर अवगाहस्वरूप सम्बन्ध होने पर भी, स्वलक्षणभूत उपयोगगुण के द्वारा व्याप्त होने से आत्मा सर्व द्रव्यों से अधिकपने से (भिन्न) प्रतीत होता है; इसलिए जैसा अग्नि का उष्णता के साथ तादात्म्यस्वरूप सम्बन्ध है, वैसा वर्णादिक के साथ आत्मा का सम्बन्ध नहीं है, इसलिए निश्चय से वर्णादिक पुद्गलपरिणाम आत्मा के नहीं हैं।"
इस विषय के ही और भी अधिक स्पष्टीकरण हेतु समयसार गाथा ५८,५९,६० और ६२ टीका सहित देखकर पाठक अपनी जिज्ञासा शांत कर सकते हैं। औदयिक भावों को जीव का स्वभाव मानने से आपत्ति -
राग-द्वेष-मद-क्रोध-लोभ-मोह-पुरस्सराः। भवन्त्यौदयिका दोषा: सर्वे संसारिण: सतः।।५५।। यदि चेतयितुः सन्ति स्वभावेन क्रुधादयः ।
भवन्तस्ते विमुक्तस्य निवार्यन्ते तदा कथम् ।।५६।। अन्वय :- संसारिणः सतः राग-द्वेष-मद-क्रोध-लोभ-मोह-पुरस्सराः सर्वे दोषाः औदयिकाः भवन्ति ।
यदि क्रुधादय: चेतयितुः स्वभावेन सन्ति तदा ते विमुक्तस्य भवन्त: कथं निवार्यन्ते ?
सरलार्थ :- संसारी जीव के जो राग-द्वेष-मद-क्रोध-लोभ-मोह आदि दोष होते हैं वे सब भाव कर्मों के उदय के निमित्त से होते हैं, अतः औदयिकरूप हैं, स्वभावरूप नहीं। __यदि क्रोधादिक दोषों का होना जीव के स्वभावस्वरूप माना जाय तो उन दोषों का मुक्त जीव के भी रहने/होने का निषेध कैसे किया जा सकता है? निषेध नहीं किया जा सकता; क्योंकि स्वभाव का कभी अभाव नहीं हो सकता।
भावार्थ :- यहाँ कर्मोदय के निमित्त से होनेवाले औदयिक भावों को जीव का स्वभाव नहीं है, यह बताया है। गुणस्थानादि जीव नहीं हैं -
गुणजीवादयः सन्ति विंशतिर्याः प्ररूपणाः।
कर्मसंबंधनिष्पन्नास्ता जीवस्य न लक्षणम् ।।५७ ।। अन्वय :- याः गुणजीवादयः विंशतिः प्ररुपणाः ताः कर्मसम्बन्धनिष्पन्ना: जीवस्य लक्षणं न सन्ति ।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/53]