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योगसार-प्राभृत
स्फटिकस्येव शुद्धस्य रक्त-पुष्पादि-योगतः ॥५४॥ अन्वय :- रक्त-पुष्पादियोगतः शुद्धस्य स्फटिकस्य इव (शुद्धात्मनः) वर्ण-गन्ध-रसादयः शरीरयोगतः सन्ति।
सरलार्थ :- जैसे शुद्ध अर्थात् श्वेत स्फटिक मणि के लाल, पीले, हरे आदि पुष्पों के संयोग/ निमित्त से लाल, पीले, हरे आदि रंग देखे जाते हैं; वैसे शरीर के संयोग से शुद्धात्मा के वर्ण, गंध, रस
आदि कहे जाते हैं। ___ भावार्थ :- इस श्लोक का मर्म समझने के लिये समयसार गाथा ५६ और ५७ टीका सहित पठनीय है, जो निम्नानुसार हैं :
“अब शिष्य पूछता है कि यदि यह वर्णादिक भाव जीव के नहीं हैं तो अन्य सिद्धान्त ग्रन्थों में ऐसा कैसे कहा गया है कि वे जीव के हैं ? इसका उत्तर गाथारूप में कहते हैं -
ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया।
गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ।। गाथार्थ - यह वर्ण से लेकर गुणस्थानपर्यन्त जो भाव कहे गये हैं वे व्यवहारनय से तो जीव के हैं (इसलिए सूत्र में कहे गये हैं); किन्तु निश्चयनय के मत में उनमें से कोई भी जीव के नहीं हैं।
टीका - यहाँ, व्यवहारनय पर्यायाश्रित होने से, सफेद रुई से बना हुआ वस्त्र जो कि कुसुम्बी (लाल) रंग से रंगा हुआ है। ऐसे वस्त्र के औपाधिक भाव (लाल रंग) की भाँति, पुद्गल के संयोगवश अनादि काल से जिसकी बंधपर्याय प्रसिद्ध है ऐसे जीव के औपाधिक भाव (वर्णादिक) का अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ (वह व्यवहारनय) दूसरे के भाव को दूसरे का कहता है
श्रत होने से, केवल एक जीव के स्वाभाविक भाव का अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ, दूसरे के भाव को किंचित्मात्र भी दूसरे का नहीं कहता, निषेध करता है। इसलिए वर्ण से लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो भाव हैं, वे व्यवहारनय से जीव के हैं और निश्चयनय से जीव के नहीं है- ऐसा (भगवान का स्याद्वादयुक्त) कथन योग्य है। __ “अब फिर शिष्य पूछता है कि वर्णादिक निश्चय से जीव के क्यों नहीं हैं ? इसका कारण कहिए । इसका उत्तर गाथारूप से कहते हैं -
एदेहिं य सम्बन्धो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो।
___ण य होंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा।। गाथार्थ - इन वर्णादिक भावों के साथ जीव का सम्बन्ध दूध और पानी का एकक्षेत्रावगाहरूप संयोगसम्बन्ध है, ऐसा जानना और वे उस जीव के नहीं हैं; क्योंकि जीव उनसे उपयोगगुण से अधिक हैं (वह उपयोग गुण के द्वारा भिन्न ज्ञात होता है)।
टीका - जैसे जलमिश्रित दूध का, जल के साथ परस्पर अवगाहस्वरूप सम्बन्ध होने पर भी,
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/52]