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________________ जीव अधिकार ५१ आत्मा को जानता हुआ/अनुभव करता हुआ जीव शुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है और अशुद्ध आत्मा को जानता हुआ / अनुभव करता हुआ जीव अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है।" ध्यान करनेवाले आत्मा को ध्याता कहते हैं । ध्याता जिस आत्मा का ध्यान करता है उसे ध्येयरूप आत्मा कहते हैं । ध्येयरूप त्रिकाली भगवान आत्मा में ही अपने व्यक्त ज्ञान को जोड़ना ध्यान कहलाता है। ध्येयरूप विविक्तात्मा / शुद्धात्मा का स्वरूप - अन्वय : विदुः । कर्म - नोकर्म-निर्मुक्तममूर्तमजरामरम् । निर्विशेषमसंबद्धमात्मानं योगिनो विदुः ।। ५२ । - योगिनः आत्मानं कर्म - नोकर्म-निर्मुक्तं अमूर्तं अजर-अमरं निर्विशेषं असंबद्धं सरलार्थ : :- - योगीजन आत्मा को ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों, राग-द्वेषादि भावकर्मों और शरीर आदि नोकर्मों से रहित; स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से विहीन; अजर-अमर, गुणभेद से शून्य - सामान्यस्वरूप और सर्वप्रकार के संबंधों एवं बंधनों से रहित तथा स्वाधीन जानते हैं, मानते हैं एवं बतलाते हैं । भावार्थ : - इस श्लोक का विशेष भाव समझने के लिए समयसार गाथा १४ तथा १९ और उसकी टीका बारीकी से अवश्य देखें । आत्मा में स्वभाव से वर्णादि का अभाव - वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्द- देहेन्द्रियादयः । चेतनस्य न विद्यन्ते निसर्गेण कदाचन ।। ५३ ।। अन्वय :- चेतनस्य वर्ण - गन्ध-रस - स्पर्श - शब्द- देह - इन्द्रियादयः निसर्गेण कदाचन (अपि) न विद्यन्ते । सरलार्थ :- चेतन आत्मा में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, देह, इन्द्रियाँ इत्यादिक स्वभाव से किसी समय भी विद्यमान नहीं होते । भावार्थ :- चेतन आत्मा का स्वभाव मात्र जानना है । मोह-राग-द्वेष भावरूप विभाव भाव भी आत्मा का स्वभाव नहीं, तब स्पर्शादि कोई भी पर्याय आत्मा में कैसे हो सकती है? इस विषय की विस्तृत जानकारी के लिये समयसार गाथा ५० से ५५ तथा उनकी टीका मननीय है; जिसमें आत्मा के स्पर्शादि २९ भाव नहीं है; यह तर्क सहित स्पष्ट किया है । शरीरसंयोग से वर्णादिक शुद्धात्मा के कहे जाते हैं - शरीर-योगतः सन्ति वर्ण- गन्ध-रसादयः । [C/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/51]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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