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जीव अधिकार
जो जीव अरहंत, सिद्ध, चैत्य (अरहंतादि की प्रतिमा) और प्रवचन / शास्त्र के प्रति भक्तियुक् वर्तता हुआ परम संयम सहित तप-कर्म करता है, वह देवलोक को संप्राप्त करता है ।। १७१ ।।
इसलिए मोक्षाभिलाषी जीव सर्वत्र किंचित् भी राग मत करो। ऐसा करने से वह भव्य जीव वीतराग होकर भवसागर को तरता है ।। १७२।।
आचार्य कुन्दकुन्द जैसे समर्थ आचार्यों का स्पष्ट शब्दों में अभिप्राय / उपदेश जानने के बाद किसी भी समझदार साधक को पुण्य का पक्षपात नहीं रहना चाहिए ।
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प्रश्न - क्या हम अरहंतादि की भक्ति छोड़ दें ?
उत्तर - भक्ति छोड़ने के लिये कौन कह रहा है ? हम तो भक्ति का यथार्थ स्वरूप समझा रहे हैं । शास्त्र में भक्ति, सदाचार, जीवदया छोड़ने की बात कही नहीं जाती; जब जीव अपने स्वरूप में समा जाता है, तब भूमिका के अनुसार कुछ परिणाम छूटते हैं और कुछ नये परिणाम भूमिका के अनुसार उत्पन्न होते हैं । जिनवाणी माता तो पाप छोड़ने के लिये / जीवन में धर्म प्रगट करने एवं बढ़ाने के लिये कहती है । जिस गुणस्थान में जो परिणाम छूटने योग्य हों, वे छूटेंगे और जो होनेयोग्य हैं, वे होंगे; यह तो वस्तुस्वरूप है ।
आस्रव रोकने / संवर का एकमेव उपाय
अन्वय :
न शक्यते ।
नागच्छच्छक्यते कर्म रोद्धुं केनापि निश्चितम् ।
निराकृत्य परद्रव्याण्यात्मतत्त्वरतिं विना । । ४९ ।।
परद्रव्याणि निराकृत्य आत्मतत्त्वरतिं विना आगच्छन् कर्म निश्चितं केनापि रोद्धुं
सरलार्थ :- परद्रव्यों को छोड़कर अर्थात् हेय अथवा ज्ञेय मानकर निजात्मतत्त्व में लीनता किये बिना आते हुए कर्म समूह को किसी भी उपाय से रोकना सम्भव नहीं है; यह निश्चित/परमसत्य है। भावार्थ :• इस श्लोक में आस्रव को रोकने का उपाय बताया है । स्थूलदृष्टि से विचार किया जाये तो दो उपाय प्रतीत होते हैं - १. परद्रव्यों को छोड़ना और २. आत्मतत्त्व में लीनता करना । वास्तव में देखा जाय तो निजात्मतत्त्व में लीन होना ही एक उपाय है। साधक जब आत्ममग्न होता है तब स्वयमेव ही परद्रव्य छूट जाते हैं ।
आस्रव को रोकना कहो अथवा कर्मों का संवर कहो एक ही बात है। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र शास्त्र के नववें अध्याय के प्रथम सूत्र में बताया है - आम्रवनिरोध: संवरः । संवर कहो, धर्म का प्रारम्भ कहो, शुद्धि अथवा वीतरागता की उत्पत्ति कहो सबका एक ही अर्थ है । आत्मतत्त्व में रति, लीनता, मग्नता ही आस्रव को रोकने का एकमात्र कारण है, अन्य कोई नहीं ।
संवर होने का उपाय ग्रन्थाधिराज समयसार में १२९वें कलश में 'संपद्यते संवर एष साक्षात्,
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