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________________ ४८ योगसार-प्राभृत लेशमात्र राग नहीं करता और निश्चय से तो उसके राग का स्वामित्व ही नहीं है। इसलिए उसके लेशमात्र राग नहीं है। ___ यदि कोई जीव राग को भला जानकर उसके प्रति लेशमात्र राग करे तो वह भले ही सर्व शास्त्रों को पढ़ चुका हो, मुनि हो, व्यवहारचारित्र का पालन करता हो तथापि यह समझना चाहिए कि उसने अपने आत्मा के परमार्थस्वरूप को नहीं जाना, कर्मोदयजनित राग को ही अच्छा मान रक्खा है, तथा उसी से अपना मोक्ष माना है । इसप्रकार अपने और पर के परमार्थस्वरूप को न जानने से जीवअजीव के परमार्थ स्वरूप को नहीं जानता। और जहाँ जीव तथा अजीव - इन दो पदार्थों को ही नहीं जानता वहाँ वह सम्यग्दृष्टि कैसा ? तात्पर्य यह है कि रागी जीव सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता।" ___ इस विषय के और अधिक स्पष्टीकरण के लिये इन गाथाओं से पहले के प्रकरण का भी सूक्ष्मता से अध्ययन अवश्य करें। परमेष्ठी की उपासना से कर्मक्षय नहीं होता - यो विहायात्मनो रूपं सेवते परमेष्ठिनः । स बध्नाति परं पुण्यं न कर्मक्षयमश्नुते ।।४८।। अन्वय :- य: आत्मनः रूपं विहाय परमेष्ठिन: सेवते सः पुण्यं बध्नाति; परं कर्मक्षयं न अश्नुते। सरलार्थ :- जो कोई आत्मा के रूप (स्वरूप) को छोड़कर अरहन्तादि परमेष्ठियों के रूप (स्वरूप) को ध्याता है, वह उत्कृष्ट पुण्य तो बांध लेता है; परन्तु कर्मक्षय को प्राप्त नहीं होता। भावार्थ :- इसी ग्रंथ के श्लोक ४४ में निज शुद्धात्मा की उपासना को ही मोक्ष-सुख का एकमेव उपाय तथा साधन बताया है। इस श्लोक में परमेष्ठी की उपासना कर्मबंध का कारण है, कर्मक्षय का कारण नहीं; ऐसा कहकर शुद्धात्मा की ही उपासना को और दृढ़ किया है। इस श्लोक में कहे हुए विषय को आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय ग्रंथ में विभिन्न तीन गाथाओं द्वारा अत्यन्त विशद रीति से समझाया है। इसलिए उन तीन गाथाओं का अर्थ देखिए - अरहंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो । बंधदि पुण्णं बहुसो ण हु सो कम्मक्रवयं कुणदि।। अरहंतसिद्धचेदियपवयणभत्तो परेण णियमेण | जो कुणदि तवोकम्मं सो सुरलोगं समादियदि।। तम्हा णिव्वुदिकामो रागं सव्वत्थ कुणदु मा किंचि। सो तेण वीदरागो भविओ भवसायरं तरदि।। गाथार्थ – “अरहंत, सिद्ध, चैत्य (अरहंतादि की प्रतिमा) प्रवचन (शास्त्र) मुनिगण और ज्ञान के प्रति भक्तिसम्पन्न जीव बहुत पुण्य बांधता है, परन्तु वास्तव में वह कर्म का क्षय नहीं करता ।।१६६।। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/48]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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