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________________ जीव अधिकार ४७ जाननेवाला न लेकर मात्र शास्त्र के आधार से आत्मा को विकल्पात्मक जानना ही लेना चाहिए; अन्यथा वास्तविक अर्थ समझ में नहीं आयेगा। प्रश्न :- यह अर्थ तो आप अपने मन से ही लगा रहे हैं, किसी आचार्य प्रणीत शास्त्र का आधार दीजिए। उत्तर :- आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार गाथा २०१-२०२ में इस विषय को लिया है. उसका विशिष्ट अर्थ आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी ओर से अलग ही किया है और पंडितश्री जयचन्दजी छाबड़ा ने तो उस अर्थ को और भी अधिक स्पष्ट किया है। इसलिए हम मूल गाथा, उसकी टीका व भावार्थ यहाँ यथावत् दे रहे हैं। “अब पूछता है कि रागी (जीव) सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं होता ? उसका उत्तर कहते हैं - परमाणुमित्तयं पि हु रागादीणं तु विज्जदे जस्स | ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि|| अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो। कह होदि सम्मदिदी जीवाजीवे अयाणंतो ।। गाथार्थ :- वास्तव में जिस जीव के परमाणुमात्र-लेशमात्र भी रागादिक वर्तता है वह जीव भले ही सर्वागम का धारी (समस्त आगमों को पढ़ा हुआ) हो, तथापि आत्मा को नहीं जानता, और आत्मा को न जानता हुआ वह अनात्मा को/पर को भी नहीं जानता; इसप्रकार जो जीव और अजीव को नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? टीका - जिसके रागादि अज्ञानमय भावों के लेशमात्र का भी सद्भाव है, वह भले ही श्रुतकेवली जैसा हो, तथापि वह ज्ञानमय भावों के अभाव के कारण आत्मा को नहीं जानता और जो आत्मा को नहीं जानता वह अनात्मा को भी नहीं जानता; क्योंकि स्वरूप से सत्ता और पररूप से असत्ता इन दोनों के द्वारा एक वस्तु का निश्चय होता है; (जिसे अनात्मा का-राग का निश्चय हुआ हो, उसे अनात्मा और आत्मा - दोनों का निश्चय होना चाहिए, इसप्रकार से आत्मा और अनात्मा को जो नहीं जानता वह जीव और अजीव को नहीं जानता; तथा जो जीव और अजीव को नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि ही नहीं है। इसलिए रागी (जीव) ज्ञान के अभाव के कारण सम्यग्दृष्टि नहीं होता। भावार्थ :- यहाँ राग शब्द से अज्ञानमय राग-द्वेष-मोह कहे गये हैं और अज्ञानमय कहने से मिथ्यात्व-अनन्तानुबंधी से हुए रागादिक समझना चाहिए। मिथ्यात्व के बिना चारित्रमोह के उदय का राग नहीं लेना चाहिए; क्योंकि अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादि को चरित्रमोह के उदय सम्बन्धी जो राग है सो ज्ञानसहित है; सम्यग्दृष्टि उस राग को कर्मोदय से उत्पन्न हुआ रोग जानता है और उसे मिटाना ही चाहता है; उसे उस राग के प्रति राग नहीं है और सम्यग्दृष्टि के राग का लेशमात्र सद्भाव नहीं है - ऐसा कहा है । सो इसका कारण इसप्रकार है - सम्यग्दृष्टि के अशुभराग तो अत्यन्त गौण है और जो शुभ राग होता है, सो वह उसे किंचित्मात्र भी भला (अच्छा) नहीं समझता, उसके प्रति [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/47]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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