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________________ योगसार प्राभृत ४६ रहने पर और समस्त इन्द्रियों का व्यापार नष्ट हो जाने पर आत्मा का स्वभाव अवश्य आविर्भूत होता है और उस स्वभाव के आविर्भूत होने पर यह आत्मा ही परमात्मा बन जाता है। केवलज्ञान, आत्मा का उत्तम स्वरूप केवलम्। नास्ति ज्ञानं परित्यज्य रूपं चेतयितुः परम् ॥४६॥ स्वसंविदितमत्यक्षमव्यभिचारि 1 अन्वय :- - अत्यक्षं स्वसंविदितं अव्यभिचारि केवलं ज्ञानं परित्यज्य चेतयितुः परं रूपं नास्ति। सरलार्थ : - जो ज्ञान इन्द्रियों की सहायता से रहित है, जिसका कभी भी संशय-विपर्ययादिरूप अन्यथा परिणमन नहीं होता, उस केवलज्ञान को छोड़कर आत्मा का दूसरा कोई उत्तम स्वरूप नहीं है । भावार्थ :- केवलज्ञान के विशेषणों का विशेष स्पष्टीकरण १. अत्यक्ष - अतीन्द्रियज्ञान को अत्यक्ष अर्थात् इन्द्रिय रहित प्रत्यक्ष कहते हैं । केवलज्ञान के लिये किसी भी इन्द्रिय की निमित्तता आवश्यक नहीं है, अतः केवलज्ञान को शास्त्र में असहाय (जिसे किसी की सहायता की, मदद की आवश्यकता नहीं) भी कहा है। २. स्वसंविदित - अर्थात् स्वप्रकाशक । जैसे दीपक को प्रकाशित करने के लिए अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं है, वैसे केवलज्ञान को जानने के लिए अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं है । वह स्वयमेव ही स्वभाव से स्वप्रकाशक है। I २. अव्यभिचारि - संशयादिरूप कोई भी दोष नहीं होने से केवलज्ञान निर्दोष है। आचार्य योगीन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश एवं योगसार ग्रंथ में आत्मा को केवलज्ञानस्वभावी कहा है । वहाँ इतनी विवक्षा समझना चाहिए कि ज्ञानावरणादि कर्मों का अभाव होनेपर केवलज्ञान प्रगट T होता है । आत्मा तो ज्ञानस्वभावी है और मति, श्रुतादि ज्ञान, ज्ञान गुण की पर्यायें हैं । केवलज्ञान भी ज्ञानगुण की सर्वोत्कृष्ट पर्याय है। इससे और कोई सर्वोतम पर्याय नहीं हो सकती । अणुमात्र राग भी पाप का बंधक - यस्य रागोऽणुमात्रेण विद्यतेऽन्यत्र वस्तुनि । आत्मतत्त्व-परिज्ञानी बध्यते कलिलैरपि ।।४७।। अन्वय :- यस्य अन्यत्र वस्तुनि अणुमात्रेण राग: विद्यते सः आत्मतत्त्व-परिज्ञानी अपि कलिलैः बध्यते । सरलार्थ : :- • जिसके परवस्तु में सूक्ष्म से सूक्ष्म भी राग विद्यमान है, वह जीव आत्मतत्त्व का ज्ञाता होने पर भी पाप कर्मों से बंधता है। भावार्थ :- इस श्लोक का अर्थ थोड़ा अटपटा लगता है। इसलिए कुछ शब्दों का भावार्थमूलक अर्थ जानना आवश्यक है । श्लोक में आत्मतत्त्व परिज्ञानी का अर्थ वास्तविक आत्मतत्त्व को [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/46]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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