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जीव अधिकार
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रूप से अवलोकता है। वह आत्मा ही वास्तव में चारित्र है, ज्ञान है, दर्शन है, ऐसा कर्ता-कर्मकरण के अभेद के कारण निश्चित है।
इससे (ऐसा निश्चित हुआ कि) चारित्र-ज्ञान-दर्शनरूप होने के कारण आत्मा को जीवस्वभावनियत चारित्र जिसका लक्षण है - ऐसा निश्चय मोक्षमार्गपना अत्यन्त घटित होता है।" निज शुद्धात्मा की उपासना ही निर्वाणसुख का उपाय -
तस्मात्सेव्यः परिज्ञाय श्रद्धयात्मा मुमुक्षुभिः।
लब्ध्युपाय: परो नास्ति यस्मानिर्वाणशर्मणः ।।४४।। अन्वय :- तस्मात् मुमुक्षुभिः आत्मा परिज्ञाय श्रद्धया सेव्यः, यस्मात् परः निर्वाणशर्मण: लब्धि-उपाय: न अस्ति।
सरलार्थ :- मोक्ष की इच्छा रखनेवाले साधक को कर्ता-कर्म-करण की अभेदता के कारण निश्चित एवं शुद्ध आत्मा की ज्ञानपूर्वक श्रद्धा द्वारा निजात्मा की उपासना करना चाहिए, क्योंकि मोक्षसुख की प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय/साधन नहीं है।
भावार्थ :- आज तक जितने भी साधक जीव सिद्ध हो गये हैं; वे सभी निजशुद्धात्मा के ध्यान से ही सिद्ध हुए हैं। निजशुद्धात्मा का ज्ञान-श्रद्धान-आचरण ही एकमेव मुक्ति का उपाय है और यही द्वादशांगरूप जिनवाणी का सार भी है। आत्मस्वरूप की अनुभूति का उपाय -
निषिध्य स्वार्थतोऽक्षाणि विकल्पातीतचेतसः।
___ तद्रूपं स्पष्टमाभाति कृताभ्यासस्य तत्त्वतः ।।४५।। अन्वय :- अक्षाणि स्व-अर्थतः निषिध्य कृताभ्यासस्य विकल्पातीत-चेतसः तत् रूपं (आत्मरूपं) तत्त्वत: स्पष्टं आभाति ।
सरलार्थ :- स्पर्शनेन्द्रियादि इन्द्रियों को अपने-अपने स्पर्शादि विषयों से रोककर आत्मध्यान का अभ्यास करनेवाले निर्विकल्पचित्त/ध्याता/साधक को आत्मा का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट/ विशद/साक्षात् अनुभव में आता है।
भावार्थ :- आचार्य अमितगति ने इस विषय को इसी अधिकार के ३३वें श्लोक में भी स्पष्ट किया है; उसे भी पुन: देखें। आचार्य देवसेन ने आराधनासार की गाथा ८५ में इस विषय को और भी स्पष्ट किया है -
उव्वसिए मणगेहे णद्वे णिस्सेस-करण-वावारे।
विफ्फुरिए ससहावे अप्पा परमप्पओ हवदि।। गाथार्थ :- मन-मन्दिर के उजाड होने पर अर्थात उसमें किसी भी संकल्प-विकल्प का वासन
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