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योगसार-प्राभृत
ही मोक्षमार्ग अर्थात् मोक्ष का उपाय/साधन है।
भावार्थ:- आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम सूत्र में ही 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की एकतारूप परिणाम को मोक्ष का मार्ग/ उपाय/साधन कहा है। इस सूत्र में निश्चयनय का कथन किया है; क्योंकि अन्य द्रव्य, अन्यगुण एवं अन्यपर्याय को मोक्ष का उपाय है; ऐसा कथन नहीं किया। इस सूत्र में स्वभावपर्याय की मुख्यता से मोक्षमार्ग का कथन किया है। ___ मोक्ष अर्थात् बंधन से/विभाव से/दुःख से छूटना अर्थात् बंधनरहित होने को मोक्ष कहते हैं। स्वभावरूप परिणमन को मोक्ष कहते हैं । अत्यन्त सुखरूप अवस्था को मोक्ष कहते हैं। ___ मार्ग का अर्थ विशिष्ट क्षेत्रगत रास्ता ऐसा नहीं है। रास्ता अर्थ करके उसका भाव भी उपाय अथवा साधन करोगे तो ही ज्ञानियों इष्ट है। मार्ग का अर्थ, कारण, हेतु, जीवद्रव्य की पर्याय ही करना चाहिए; जिससे प्रकरण के अनुसार योग्य भाव स्पष्ट होता है। मोक्ष अवस्था जीव की है और उसकी प्राप्ति का साधन भी जीवद्रव्य की पर्याय ही होना चाहिए; जो वस्तुस्वभाव के लिये अनुकूल है। आत्मा, स्वयं दर्शन-ज्ञान-चारित्र है -
यश्चरत्यात्मनात्मानमात्मा जानाति पश्यति ।
निश्चयेन स चारित्रं ज्ञानं दर्शनमुच्यते ।।४३।। अन्वय :- यः आत्मा निश्चयेन आत्मानं आत्मना पश्यति, जानाति चरति स: दर्शनं ज्ञानं चारित्रं उच्यते।
सरलार्थ :- जो आत्मा, आत्मा को निश्चयनय से देखता, जानता और आचरता अर्थात् स्वरूप में प्रवृत्ति करता है, वह आत्मा ही स्वयं दर्शन, ज्ञान और चारित्र कहा जाता है।
भावार्थ :- आत्मा स्वयं दर्शन, ज्ञान, चारित्र है, इसी विषय को आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्र ने पंचास्तिकाय संग्रह गाथा १६२ तथा उसकी टीका में स्पष्ट किया है, जो अति-महत्त्वपूर्ण है, अत: उसे हम यहाँ उद्धृत कर रहे हैं।
जो चरदि णादि पेच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं ।
सो चारित्तं णाणं दसणमिदि णिच्छिदो होदि।। गाथार्थ :- “जो आत्मा अनन्यमय आत्मा को आत्मा से आचरता है, जानता है, देखता है, वह आत्मा ही चारित्र है, ज्ञान है, दर्शन है - ऐसा निश्चित है।
टीका :- यह आत्मा के चारित्र-ज्ञान-दर्शनपने का प्रकाशन है अर्थात् आत्मा ही चारित्र, ज्ञान और दर्शन है, ऐसा यहाँ समझाया है। जो (आत्मा) वास्तव में आत्मा को - जो कि आत्मामय होने से अनन्यमय है, उसे आत्मा से आचरता है अर्थात् स्वभावनियत अस्तित्व द्वारा अनुवर्तता है। आत्मा से जानता है अर्थात् स्व-पर प्रकाशकरूप से चेतता है। आत्मा से देखता है अर्थात् यथातथ्य
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