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________________ ३२० योगसार-प्राभृत संसारच्छेद का स्वरूप - (शालिनी) स्कन्धच्छेदे पल्लवाः सन्ति भूयो ___मूलच्छेदे शाखिनस्ते तथा नो । देशच्छेदे सन्ति भूयो विकारा मूलच्छेदे जन्मनस्ते तथा नो ।।५३६।। अन्वय : - (यथा) शाखिनः स्कन्धच्छेदे पल्लवा: भूयः सन्ति; (किन्तु शाखिनः) मूलच्छेदे ते तथा नो (तथैव) जन्मनः देशच्छेदे विकारा: भूयः सन्ति; (किन्तु जन्मनः) मूलच्छेदे ते (विकाराः) तथा नो। सरलार्थ :- जिसप्रकार वृक्ष के स्कन्ध भाग का छेद होने पर पत्ते फिर निकल आते हैं; किन्तु वृक्ष के मूल अर्थात् जड़ का छेद होनेपर वृक्ष में फिर से पत्ते नहीं आते; उसीप्रकार संसार का एकदेश नाश (अज्ञानी की मान्यतानुसार पाप का नाश) करने पर विकार फिर उत्पन्न हो जाते हैं; किन्तु संसार के मलरूप मिथ्यात्व के सम्पर्ण विनाश करने पर फिर से विकार उत्पन्न नहीं होते अर्थात संसार का ही नाश हो जाता है। भावार्थ :- पाप का नाश होने से संसार का आंशिक नाश होता है; ऐसी अज्ञानी की मान्यता का यहाँ खण्डन किया गया है। पाप की कथंचित् हीनता और पुण्य की विशेषता से देवादि की अवस्था प्राप्त होना सहज है। इस पुण्य के फल से संसार सीमित नहीं होता। कुछ काल व्यतीत होनेपर स्वयमेव ही अतिशय आकुलतामय एकेंद्रिय का जीवन प्राप्त होता है। पुण्य के फलस्वरूप अनुकूलता में भी अज्ञानी दुःखी ही रहता है; लेकिन अज्ञान के कारण उस दुःख को वह दुःखरूप ही नहीं मानता। ___अनादि परिवर्तनरूप संसार में मात्र साधिक दो हजार सागर के लिये ही यह जीव द्वीन्द्रियादि त्रस पर्यायों में आता है। यदि इस त्रस पर्याय की संज्ञी अवस्था में पुरुषार्थ करके मोक्षमार्गी बनेगा तो संसार से मुक्त होगा; अन्यथा फिर एकेंद्रिय अवस्था में ही जाना अनिवार्य है। अज्ञानी यह नियम नहीं जानता, इसलिए अघाति कर्मों में पाप की थोड़ी हीनता और पुण्य की विशेषता से संसार का देशच्छेद अर्थात् एकदेश नाश हो गया, ऐसा भ्रम रखता है और संसार में ही रहता है । घाति कर्म तो सर्व पापमय ही है; यह समझता नहीं। इस कारण संसार का मूलच्छेद भी नहीं कर पाता। संसार का मूलच्छेद तो मिथ्यात्व के नाश से ही होता है, अन्य कोई उपाय ही नहीं है। मैं त्रिकाली शुद्ध भगवान आत्मा हूँ ऐसा अपने स्वरूप का स्वीकारना ही मिथ्यात्व का नाश है। यह धर्म प्रगट करने का प्रथम उपाय भी अत्यंत दुर्लभ है। इस समय मनुष्य पर्याय में हमें यह यथार्थ उपदेश प्राप्त हुआ है, अतः इस उपदेश के अनुसार पुरुषार्थ करना अपना मुख्य कर्त्तव्य है। एक बार मूलच्छेद से सम्यग्दृष्टि होने के बाद संसार की वृद्धि नहीं होती। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/320]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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