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चूलिका अधिकार
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पोषण करते हैं । यहाँ ग्रंथकार ने मिथ्यात्व का पोषण न हो और सम्यग्दर्शन प्रगट हो, इसलिए अत्यंत महत्वपूर्ण विषय को उदाहरण सहित बताया है। ___ समयसार का मूल अभिधेय यह है - आत्मा मात्र जाननस्वभावी है, अनेक स्थान पर इस विषय को स्पष्ट शब्दों में भी बताया है। जैसे समयसार ग्रंथ की प्राणभूत गाथा ६ और उसकी टीका में यह विषय अति विशदरूप से आया है।
इसके अतिरिक्त भी गाथा ३२०, कलश ५६, ६२, १९८ आदि में जीव मात्र ज्ञाता ही है, यह विषय आया है। पाठक इन प्रकरणों को जरूर पढ़ें। स्वभाव और विभाव ज्ञान का स्वरूप -
स्वरूपमात्मनः सूक्ष्ममव्यपदेशमव्ययम् ।
___ तत्र ज्ञानं परं सर्वं वैकारिकमपोह्यते ।।५३५।। अन्वय : - आत्मनः स्वरूपं (ज्ञान) सूक्ष्म अव्यपदेशं च अव्ययं (अस्ति) । तत्र (आत्मनः स्वरूपतः) परं सर्वं वैकारिकं ज्ञानं अपोहाते।
सरलार्थ :- जो ज्ञान आत्मा का स्वरूप अर्थात् स्वभाव है, वह अत्यंत सूक्ष्म है, व्यपदेश अर्थात किसी विशेष नाम से जानने योग्य नहीं है अथवा वचनातीत और अविनाशी है। ऐसे ज्ञान को कोई भी आत्मा से भिन्न नहीं कर सकता। इस स्वाभाविक तथा अनादि-अनंत ज्ञान से भिन्न दूसरा वैकारिक/विभावरूप अर्थात् स्पर्शनेंद्रियादि के निमित्त से होनेवाला पौद्गलिक ज्ञान है, उसे दूर किया जा सकता है।
भावार्थ :- जैसे अग्नि से उष्णता को भिन्न नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह स्वभाव है। अग्नि और उष्णता में नित्य-तादात्म्यसंबंध है। अग्नि उष्णतारूप है। उष्णता का नाश होने पर अग्नि का ही नाश हो जाता है। वैसे आत्मा का स्वभाव ज्ञान है। आत्मा और ज्ञान में नित्यतादात्म्यसंबंध है। ज्ञान का नाश होनेपर आत्मा का ही नाश हो जायेगा । इसलिए स्वभावरूप ज्ञान को आत्मा से कोई भी भिन्न नहीं कर सकता।
इंद्रिय-अनिंद्रिय/मन से उत्पन्न होनेवाला पौद्गलिक ज्ञान इंद्रिय-अनिन्द्रिय के नहीं रहने पर नाश को प्राप्त हो जाता है, यह स्वाभाविक ही है।
प्रश्न :- संसारी जीव को अनादि से स्पर्शनेंद्रिय है, इसलिए स्पर्शनेंद्रियजन्य ज्ञान को तो अविनाशी मानने में क्या आपत्ति है?
उत्तर :- यही आपत्ति है कि वह अनंतकाल पर्यंत न रहने के कारण नश्वर है; क्योंकि सिद्धअवस्था प्राप्त होते ही शरीर के साथ सर्व इंद्रियों का और अनिंद्रिय/मन का भी नाश हो जाता है। वास्तव में देखा जाय तो भावेंद्रियों का अभाव तो अरहंत अवस्था में ही होता है। इसलिए पौद्गलिक ज्ञान आत्मा से भिन्न होता है।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/319]