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चूलिका अधिकार
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दोनों संसारच्छेद में तुलना -
(स्रग्धरा) देशच्छेदे चरित्रं भवति भवततेः कुर्वतश्चित्ररूपं मूलच्छेदे विविक्तं वियदिव विमलं ध्यायति स्वस्वरूपम् । विज्ञायेत्थं विचिन्त्यं सदमितगतिभिस्तत्त्वमन्तःस्थमग्र्यं
संप्राप्तासन्नमार्गा न परमिह पदप्राप्तये यान्ति मार्गम् ।।५३७।। अन्वय : - (संसारस्य) देशच्छेदे (सति) भवतते: चित्ररूपं कुर्वत: चरित्रं भवति (संसारस्य च) मूलच्छेदे (आत्मा) वियत् इव विमलं, विविक्तं स्व-स्वरूपं ध्यायति । इत्थं विज्ञाय सदमितगतिभिः अन्त:स्थं अयं तत्त्वं विचिन्त्यं (अस्ति)। संप्राप्तासन्नमार्गाः पदप्राप्तये परं मागं इह न यान्ति (इव)।
सरलार्थ :- संसार के एकदेश छेद/नाश होने पर अर्थात् अति पापरूप अवस्था का अभाव होने से संसार की परम्परानुसार चित्र-विचित्ररूप अर्थात् अनेक अवस्थाओं को धारण करनेरूप चारित्र होता है। मिथ्यात्व के अभावपूर्वक संसार के मूल का नाश होने पर आत्मा आकाश के समान कर्मरूपी कलंक से रहित निर्मल अपने निज स्वरूप को ध्याता है । इसप्रकार वस्तुस्वरूप को यथार्थ जानकर जो उत्तम ज्ञान के धारक महापुरुष हैं, वे अंतरंग में स्थित प्रधान तत्त्वरूप शुद्ध आत्मा का ही ध्यान करते हैं। यह योग्य ही है कि जिन्हें अपेक्षित/इष्ट स्थान की प्राप्ति का उपाय अपने निकट/ अपने में ही प्राप्त होता है, तो वे फिर दूर के अन्यथा मार्ग से गमन नहीं करते।
भावार्थ :- श्लोक ५३६ एवं ५३७ में मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी तथा भावलिंगी मुनि के स्वरूप पर ग्रंथकार प्रकाश डालना चाहते हैं। द्रव्यलिंगी मुनि २८ मूलगुणों का आगमानुसार पालन करते हैं, जिसके फलस्वरूप उन्हें नव ग्रैवेयक पर्यंत देवों में जन्म भी प्राप्त होता है; तथापि उनकी श्रद्धा यथार्थ नहीं होती। वे अपनी व्यवहार धर्म की साधना में ही हम धर्म कर रहे हैं। हमारे संसार का देशच्छेद हो गया ऐसी मान्यता रखते हैं। ग्रंथकार ने अज्ञानी की मान्यता बताने के लिये देशच्छेद शब्द-प्रयोग किया है। पंचम गुणस्थान के योग्य व्रतपालन करनेवाले द्रव्यलिंगी श्रावक भी अथवा अव्रती सामान्य जैन भी अपनी अज्ञानमय मान्यतानुसार पुण्यक्रिया एवं परिणामों को धर्म मानकर उसे देशच्छेद हो गया - ऐसी मान्यता रखते हैं।
मूलच्छेद तो मिथ्यात्व के अभाव से ही होता है। यह कार्य चौथे, पाँचवें एवं छठवें-सातवें गुणस्थानवी जीव ही करते हैं । इस श्लोक में प्रयुक्त सदभिमतगतिभिः शब्द हमें मुनिराज अर्थ करने के लिये बाध्य करता है। अतः भावलिंगी मुनिराज ही अर्थ करना आवश्यक है; क्योंकि वे अंतस्थं अग्र्यं तत्त्वं अर्थात् शुद्धात्मा का ध्यान करनेवाले हैं और अपरिमित ज्ञान के धारक हैं। गति शब्द का अर्थ ज्ञान होता है, यह सर्वविदित है।
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