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जीव अधिकार
उत्तर :
बिल्कुल नहीं, ये तो भावलिंगी संतों का छठवें गुणस्थान में भूमिकानुसार होनेवाला सहज कार्य है । इस शुभोपयोगरूप परिणाम से तो व्यवहारधर्म की प्रवृत्ति जीवित रहती है। यह तो पर्याय के स्वभावगत कार्य हैं, उनका निषेध नहीं किया जा सकता। इन कार्यों में संलग्न मुनिराज इन कार्यों को उपादेय नहीं मानते, यह भी समझना आवश्यक है।
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प्रश्न :- अविरत या देशविरत गुणस्थानवर्ती साधक अशुभोपयोग में प्रवृत्ति करते हैं, क्या उस अवस्था में भी उन्हें साधक माना जा सकता है ?
उत्तर :- हाँ, अवश्य साधक ही मानना चाहिए। जब तक सम्यग्दर्शन है, एक या दो कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक शुद्धपरिणतिरूप वीतरागता व्यक्त है, तब तक साधकपना रहेगा ही रहेगा। यदि ऐसा नहीं माना जाय तो घर में रहते हुए तीर्थंकर को, चक्रवर्ती को आत्मविमुख अर्थात् मिथ्यादृष्टि मानने की आपत्ति आ जायेगी । आहारग्रहण करते हुए मुनिराज का साधकपना भी संकट में आ जायेगा ।
जब श्रद्धा एवं ज्ञान में से भी निज भगवान आत्मा का उपादेयपना छूट जाता है, तब आत्मपराङ्गमुखपना होता है अर्थात् मिथ्यादृष्टि होता है। यहाँ मिथ्यात्व को ही आत्मविमुखता समझना चाहिए । निश्चयचारित्र का स्वरूप
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अभिन्नमात्मनः शुद्धं ज्ञानदृष्टिमयं स्फुटम् ।
चारित्रं चर्यते शश्वच्चारु - चारित्रवेदिभिः ॥ ४० ॥
अन्वय :- चारु- चारित्रवेदिभिः आत्मनः अभिन्नं शुद्धं ज्ञानदृष्टिमयं स्फुटं चारित्रं शश्वत् चर्यते ।
सरलार्थ :- सम्यग्चारित्र के अनुभवी महापुरुष आत्मा से अभिन्न, शुद्ध अर्थात् वीतरागमय, सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान सहित स्पष्ट अर्थात् व्यक्त, चारित्र का निरंतर आचरण करते हैं।
भावार्थ :- निश्चय सम्यग्चारित्र की पवित्र एवं सुखद पर्याय आत्मा से अभिन्न है; क्योंकि आत्मगुण एवं उसकी हर पर्याय आत्मा से एकरूप ही होना स्वाभाविक है। यह कहकर आचार्य निश्चय चारित्र आत्मगुण एवं आत्मपर्याय को छोड़कर अन्य - शरीररूप पुद्गल द्रव्य अथवा उसकी पर्यायरूप नहीं हो सकता, ऐसा निर्णय करा रहे हैं।
चारित्र को स्फुट अर्थात् स्पष्ट एवं व्यक्त कहकर जीवन में साक्षात् अनुभव में आता है; यह कह रहे हैं। जीवन में होनेवाला सम्यक्चारित्र गुप्त-सुप्त नहीं रह सकता ।
शुद्ध शब्द से पुण्य-पापरूप विभावभावों से सर्वथा अलग/भिन्न है; ऐसा कहकर आस्रव, बंध के कारण आकुलतामय पुण्यभाव एवं शुभोपयोग चारित्र नहीं है, यह स्पष्ट कर रहे हैं
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ज्ञानदृष्टिमय विशेषण से सम्यक्चारित्र नियम से सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्दर्शन सहित ही होता है, अज्ञान तथा अंधश्रद्धा का सम्यक् चारित्र के साथ दूर का भी संबंध नहीं है, यह स्पष्ट किया है ।
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