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योगसार-प्राभृत
शाश्वत विशेषण से साधक के जीवन में निरन्तर चारित्र होता है अर्थात् पुण्योदय हो तो चारित्र होवे, शुभोपयोग के काल में चारित्र होवे, शरीर बलवान हो तो चारित्र होवे, अनुकूल काल होवे तो चारित्र होवे - इसप्रकार सर्व अन्य कारणों के साथ कोई संबंध नहीं है, यह स्पष्ट किया है। शाश्वत शब्द से सिद्ध अवस्था में अनंतकाल पर्यंत भी चारित्र रहेगा ही, यह भी समझना चाहिए।
किसी भी विषय के कथन अथवा अनुभव करनेवाले व्यक्ति से कथ्य एवं अनुभाव्य विषय की विशेषता समझी जाती है। इसलिए यहाँ सम्यक्चारित्र का स्वयं अनुभव करनेवाले ही इस चारित्र का हमेशा आचरण करते हैं; यह बताया है। व्यवहाररत्नत्रय का स्वरूप -
आचार-वेदनं ज्ञानं सम्यक्त्वं तत्त्व-रोचनम्।
चारित्रं च तपश्चर्या व्यवहारेण गद्यते।।४१ ।। अन्वय :- व्यवहारेण तत्त्व-रोचनं सम्यक्त्वं, आचार-वेदनं ज्ञानं, तपश्चर्या च चारित्रं गद्यते।
सरलार्थ :- व्यवहारनय की अपेक्षा से तत्त्वरुचि को सम्यग्दर्शन, आचारादि शास्त्र के अंगों के ज्ञान को सम्यग्ज्ञान एवं तपरूप/व्रतादिस्वरूप आचरण को सम्यक्चारित्र कहते हैं।
भावार्थ:- इस श्लोक में व्यवहार सम्यग्दर्शनादि का स्वरूप बताया है । इसीतरह अन्य अपेक्षा से भी पंचास्तिकाय संग्रह गाथा १६०, समयसार गाथा २७६-२७७ में इस विषय की चर्चा है।
समयसार गाथा २७६-२७७ तथा उनकी टीका में व्यवहारनय को प्रतिषेध्य एवं निश्चयनय को प्रतिषेधक बताते हुए अतिशय महत्त्वपूर्ण विवेचन आया है, उसे हम अत्यन्त उपयोगी जानकर यहाँ अविकलरूप से दे रहे हैं -
“अब यह प्रश्न होता है कि निश्चयनय के द्वारा निषेध्य व्यवहारनय और व्यवहारनय का निषेधक निश्चयनय वे दोनों नय कैसे हैं ? अत: व्यवहार और निश्चयनय का स्वरूप कहते हैं -
आयारादी णाणं जीवादी दंसणं च विण्णेयं । छज्जीवणिकं च तहा भणदि चरित्तं तु ववहारो॥ आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च ।
आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो ।। गाथार्थ :- आचारांगादि शास्त्र ज्ञान है, जीवादि तत्त्व, दर्शन जानना चाहिए तथा छह जीवनिकाय, चारित्र हैं - ऐसा तो व्यवहारनय कहता है।
निश्चय से मेरा आत्मा ही ज्ञान है, मेरा आत्मा ही दर्शन और चारित्र है, मेरा आत्मा ही प्रत्याख्यान है, मेरा आत्मा ही संवर और योग (समाधि, ध्यान) है।
टीका - आचारांगादि शब्दश्रुतज्ञान है, क्योंकि वह (शब्दश्रुत) ज्ञान का आश्रय है, जीवादि
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