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________________ ४० योगसार-प्राभृत ____टीका - यह आत्मा जिस भाव से साध्य तथा साधन हो, उस भाव से ही नित्य सेवन करने योग्य है। इसप्रकार स्वयं विचार करके दूसरों को व्यवहार से प्रतिपादन करते हैं कि साधु पुरुष को दर्शनज्ञान-चारित्र का सदा सेवन करने योग्य है। किन्तु परमार्थ से देखा जाय तो यह तीनों एक आत्मा ही हैं, क्योंकि ये अन्य वस्तु नहीं, किन्तु आत्मा की ही पर्याय हैं। जैसे किसी देवदत्त नामक पुरुष के ज्ञान; श्रद्धान और आचरण देवदत्त के स्वभाव का उल्लंघन न करने से (वे) देवदत्त ही हैं, अन्यवस्तु नहीं; इसीप्रकार आत्मा में भी आत्मा के ज्ञान-श्रद्धान और आचरण आत्मा के स्वभाव का उल्लंघन न करने से आत्मा ही है, अन्य वस्तु नहीं। इसलिए यह स्वयमेव सिद्ध होता है कि एक आत्मा ही सेवन करने योग्य है। ___ भावार्थ - दर्शन, ज्ञान, चारित्र - तीनों आत्मा की ही पर्याय हैं, कोई भिन्न वस्तु नहीं हैं; इसलिए साधु पुरुषों को एक आत्मा का ही सेवन करना, यह निश्चय है और व्यवहार से दूसरों को भी यही उपदेश करना चाहिए।" आत्मध्यान से विमुख योगी का स्वरूप - __ यः करोति परद्रव्ये रागमात्मपराङ्गमुखः । रत्नत्रयमयो नासौ न चारित्रचरो यतिः ।।३९ ।। अन्वय :- यः यति: आत्म-पराङ्मुखः परद्रव्ये रागं करोति असौ न रत्नत्रयमय: न चारित्रचरः। सरलार्थ:- जो योगी आत्मस्वभाव से विमुख होकर परद्रव्य में राग/प्रीति करता है, वह योगी न रत्नत्रयसम्पन्न है और न सम्यक् चारित्र का आचरण करनेवाला है। भावार्थ :- धर्मक्षेत्र में एक त्रिकाली निज शुद्धात्मा का सतत ध्यान ही मुख्य है । जब किसी भी साधक जीव की दृष्टि/श्रद्धा में से अपना त्रिकाली भगवान आत्मा छूट जाता है, तब वह धार्मिक नहीं रहता। यहाँ आत्मपराङ्गमुख का अर्थ श्रद्धा में से अपने निज शुद्धात्मा का छूट जाना है, मात्र उपयोग में से छूट जाना, ऐसा अर्थ नहीं करना चाहिए। ___ध्यान अर्थात् ज्ञान की निरंतरता में से निजात्मा छूट जाते ही परद्रव्यरतपना अर्थात् चारित्र का नाश नहीं होता। यदि शुद्धोपयोग से छूटते ही परद्रव्यरतपना स्वीकार किया जाय तो प्रमत्तविरत गुणस्थानवर्ती को, शुभाशुभोपयोगमयी देशविरति को अथवा अविरति को भी अधार्मिक अथवा आत्मविमुखता माननी पड़ेगी। अत: जबतक श्रद्धा में निजशुद्धात्मा का अहंपना रहता है अर्थात् छठवें, पाँचवें, चौथे गुणस्थान में विशिष्ट कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक शुद्धपरिणतिरूप वीतरागता व्यक्त है; तबतक शुद्धोपयोग रहित आत्मा को भी साधकपना ही है - यह स्वीकारना आवश्यक है। प्रश्न :- श्रोताओं को उपदेश देनेवाले अथवा शास्त्र-लेखन करनेवाले एवं शास्त्र पढ़नेपढ़ानेवाले आचार्य तथा उपाध्याय परमेष्ठी को क्या आत्मविमुख माना जा सकता है? [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/40]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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