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________________ जीव अधिकार चाहिए कि महाव्रत नहीं टिकते अर्थात् यथार्थ मुनिपना/भावलिंगीपना नहीं रहता। आत्मरमणता से पापों का पलायन - हिंसत्वं वितथं स्तेयं मैथुनं सङ्गसंग्रहः। आत्मरूपगते ज्ञाने नि:शेषं प्रपलायते ।।३७ ।। अन्वय :- ज्ञाने आत्मरूपगते हिंसत्वं वितथं स्तेयं मैथुनं सङ्गसंग्रहः निःशेषं प्रपलायते । सरलार्थ :- ज्ञान के आत्मरूप में परिणत होने पर अर्थात् आत्मा के आत्मस्वरूप में लीन होने पर हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह - ये पाँचों पाप भाग जाते हैं अर्थात् कोई भी पाप नहीं रहता। __भावार्थ :- दिगम्बर संत अलौकिक महापुरुष हैं। उनके जीवन में अंशमात्र हिंसादि पाँच पाप नहीं होते। छठवें गुणस्थान में उनको शुभोपयोग होता है, उस काल में २८ मूलगुण पालने का सर्वोत्तम पुण्य परिणाम ही होता है। श्लोक में प्रकरण तो जो आत्मा आत्ममग्न होता है, उसका है अर्थात् शुद्धोपयोगी संतों का है; अप्रमत्तविरत गुणस्थान से लेकर उपरिम गुणस्थान में विराजमान महामुनियों का है। शुद्धोपयोग में तो पाँचों पापों की अंशमात्र भी संभावना नहीं है। वहाँ तो बद्धिपूर्वक पुण्यपरिणाम का भी अभाव है। अत: यहाँ पाप पलायन करते हैं; ऐसा कथन किया है; जो परमसत्य है। आत्मश्रद्धान, आत्मज्ञान एवं आत्मरमणता ही पापों के अभाव का सही उपाय है। आत्मा के ध्यान से कर्मों से छुटकारा - चारित्रं दर्शनं ज्ञानमात्मरूपं निरञ्जनम् । कर्मभिर्मुच्यते योगी ध्यायमानो न संशयः ।।३८ ।। अन्वय :- निरञ्जनं ज्ञानं दर्शनं चारित्रं (च) आत्मरूपं ध्यायमान: योगी कर्मभिः मुच्यते न संशयः। सरलार्थ :- निर्मल दर्शन, ज्ञान, चारित्र यह आत्मा का स्वरूप/स्वभाव है। इस आत्मस्वरूप को ध्याते हुये योगी कर्मों से छूट जाते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। भावार्थ :- शुद्धात्मा का ध्यान शास्त्रों में दो प्रकार से कहा है - साधनभाव से और साध्यभाव से। शुद्ध रत्नत्रयात्मक आत्मा का ध्यान करना चाहिए, यह कथन साधनभाव का हुआ और शुद्धात्मा का ध्यान करना चाहिए, यह कथन साध्यभाव का हुआ। यही समयसार गाथा १६ और उसकी टीका में कहा है, उसे यहाँ अविकल रूप से दे रहे हैं - "दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं | ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो।। गाथार्थ - साधु पुरुष को दर्शन, ज्ञान और चारित्र का सदा सेवन करने योग्य है और उन तीनों को निश्चयनय से एक आत्मा ही जानो। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/39]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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