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________________ ३८ योगसार-प्राभृत हैं - दोनों मिथ्या मान्यताओं में समान ही अपराध करते हैं । शुभ क्रिया को धर्म मानना तो अजीव द्रव्य की क्रिया को धर्म मानने की भूल है और पुण्य-परिणाम को धर्म मानना आस्रव, बंधरूप संसार तत्त्व को धर्म मानने की भूल है। धर्म तो संवर-निर्जरारूप है, वह वीतरागरूप ही है; अन्यरूप नहीं। कषाय से स्वभावच्युत आत्मा के व्रत नहीं - अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्म सङ्गविवर्जनम् । कषाय-विकले ज्ञाने समस्तं नैव तिष्ठति ।।३६ ।। अन्वय :- ज्ञाने कषाय-विकले (सति) अहिंसा सत्यं अस्तेयं ब्रह्म सङ्गविवर्जनं (च एतत्) समस्तं (व्रतं) नैव तिष्ठति । सरलार्थ :- ज्ञान अर्थात् आत्मा जब क्रोधादि कषाय परिणामों से विकल अर्थात् व्याकुलित होने पर आत्मस्थिरतारूप स्वभाव से च्युत होता है; तब अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रहभाव समस्त ही महाव्रतरूप भाव स्थिर नहीं रहते, नष्ट हो जाते हैं। भावार्थ :- श्लोक में तो व्रतसमूह स्थिर नहीं रहता, ऐसा कथन आया है, इसका अर्थ हमने महाव्रत करके आचार्यों के अभिप्राय को ही स्पष्ट किया है; क्योंकि श्लोक में कहीं अणुव्रत शब्द का उल्लेख नहीं आया है और पंचम व्रत का कथन करते समय संङ्गविवर्जनं इस शब्द का प्रयोग किया है। परिग्रह का समग्र त्याग महाव्रती मुनिराज ही के होता है; अतः स्वतः महाव्रत सिद्ध हो गया। __ आचार्य अमितगति ने आगे श्लोक क्रमांक ३८,३९,५९ में क्रमश: योगी, यति, योगी शब्दों का प्रयोग किया है। अत: हमने भी सरलार्थ में महाव्रत अर्थ किया है। आचार्यरचित शास्त्र की व्याख्या करने का उद्देश्य उनके भाव को स्पष्ट करना है। ___ मूल श्लोक में आगत कषाय-विकले शब्द का भाव भी आगमानुकूल समझना अति आवश्यक है। प्रमत्त विरत छठवें गुणस्थान में भावलिंगी मुनिराज को भी उनके भूमिका के अनुकूल संज्वलन कषाय चौकड़ी के तीव्र उदयवश कषाय परिणाम तो होते हैं; तथापि उनके व्रतों का नाश नहीं होता। छठवें गुणस्थान में जो शुभोपयोगरूप प्रवृत्ति होती है, उसका निमित्त कारण संज्वलन कषाय चौकड़ी का तीव्र उदय ही है। वहाँ तो महाव्रतों के पालन का भाव रहता ही है, इसीलिए उन्हें प्रमत्त संयत मुनिराज ऐसा नाम प्राप्त होता है। प्रश्न - इस चर्चा से आप क्या कहना चाहते हैं? कुछ समझ में नहीं आया इसे स्पष्ट कीजिए। उत्तर - प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण अथवा अनंतानुबंधी कषायों के उदय से जो परिणाम होंगे या मिथ्यात्व के उदयजनित भाव होंगे तो महाव्रत नहीं रहते; ऐसा कषाय-विकल शब्द का यथायोग्य अर्थ ग्रहण करना चाहिए, हम यही बताना चाहते हैं। बाह्य में मुनिदशा हो और जीवन में श्रावक योग्य परिणाम और क्रियाएँ होने लगें तो समझना [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/38]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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