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________________ जीव अधिकार भी उपचार से, व्यवहारनय से श्रुतज्ञान कहा जाता है। सूत्र तो उपाधिरूप में होने से छूट जाता है, ज्ञप्ति ही अवशिष्ट रह जाती है। वह ज्ञप्ति केवलज्ञानी की और श्रुतकेवली की आत्मा के सम्यक् अनभव में समान ही होती है। वस्तत: ज्ञान का श्रतोपाधिरूप भेद नहीं है. ऐसा भाव श्री अमतचन्द्राचार्य ने प्रवचनसार की ३४ वीं गाथा की टीका में व्यक्त किया है - 'अथ सूत्रमुपाधित्वान्नाद्रियते ज्ञप्तिरेवावशिष्यते । सा च केवलिनः श्रुतकेवलिनश्चात्मसंचेतने तुल्यैवेति नास्ति ज्ञानस्य श्रुतोपाधिभेदः।' स्वामी समन्तभद्र के शब्दों में स्याद्वादरूप श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों के जीवाजीव सर्वतत्त्व प्रकाशन में साक्षात्-असाक्षात् का अर्थात् प्रत्यक्ष-परोक्ष का भेद है, तत्त्वों को यथार्थरूप से जानने में कोई अन्तर नहीं है। जैसा कि देवागम स्तोत्र की कारिका १०५ से स्पष्ट है - स्याद्वाद-केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने | भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत्॥ समयसार गाथा १४३.१४४ तथा उनकी टीका एवं भावार्थ भी इस संदर्भ में अवश्य पठनीय हैं। सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति का काल - रागद्वेषापराधीनं यदा ज्ञानं प्रवर्तते। तदाभ्यधायि चारित्रमात्मनो मलसूदनम् ।।३५ ।। अन्वय :- यदा ज्ञानं राग-द्वेष-अपराधीनं प्रवर्तते तदा आत्मनः मलसूदनं चारित्रं अभ्यधायि। सरलार्थ :- जब ज्ञान अर्थात् आत्मा राग-द्वेष की पराधीनता से रहित प्रवर्तता है, तब आत्मा के कर्मरूपी मल का नाशक चारित्र होता है, ऐसा कहा है। भावार्थ :- आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार गाथा क्रमांक ७ में इसी विषय को स्पष्ट कहा है चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोत्ति णिदिद्रो। __मोहवरखोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो।। गाथार्थ - चारित्र वास्तव में धर्म है; जो धर्म है वह साम्य है, ऐसा शास्त्रों में कहा है। साम्य मोह और क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम है। आचार्य कुन्दकुन्द की द्विसहस्राब्धि वर्ष के समय कुन्दकुन्द के सम्बन्ध में उनके भक्त कहते रहे, 'राग-द्वेष तो कर्म है और वीतरागता धर्म है।' जैसे-जैसे वीतरागता बढ़ती जाती है वैसे-वैसे कर्म की निर्जरा भी अधिक-अधिक मात्रा में होती जाती है । इसलिये यहाँ वीतरागता को चारित्र कहा और चारित्र को कर्म का नाशक बताया है। कर्म के नाश के लिये वीतरागता को छोड़कर अन्य कोई उपाय नहीं है। कुछ लोग शारीरिक शुभ क्रिया को धर्म मानते हैं और कुछ पुण्य/शुभ परिणाम को धर्म मानते [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/37]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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