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________________ योगसार-प्राभृत की तरह मन शरीर में स्पष्ट दिखाई नहीं देता और उसके रूप-गंध आदि निश्चित विषय भी नहीं है। इन्द्रिय एवं मन को रोकने की बात तो व्यवहार से निषेधमूलक कही है। जब शुद्ध ज्ञानस्वरूप अपनी आत्मा को देखा/अनुभव किया जाता है, तब इन्द्रिय एवं मन का व्यापार स्वत: ही रुक जाता है। __आत्मा का वास्तविक रूप/स्वभाव तो मात्र ज्ञानात्मक ही है। ज्ञान को छोड़कर आत्मा कर भी क्या सकता है ? आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार की आत्मख्याति टीका में कलश ६२ में कहा ही है : "आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत् करोति किम्। परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ।। अर्थ :- आत्मा ज्ञानस्वरूप है, स्वयं ज्ञान ही है; वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य क्या करता है ? आत्मा परभाव का कर्ता है, ऐसा मानना (तथा कहना) यह व्यवहारी जीवों का मोह (अज्ञान) है।" जिसे आत्मा, मात्र ज्ञानस्वरूप ही अनुभव में आता है, वही साधक है, अन्य जीव साधक हो ही नहीं सकता। श्रुतज्ञान से भी केवलज्ञान के समान आत्मबोध की प्राप्ति - आत्मा स्वात्मविचारझर्नीरागीभूतचेतनैः । निरवद्यश्रुतेनापि केवलेनेव बुध्यते ।।३४ ।। अन्वय :- स्व-आत्म-विचारज्ञैः नीरागीभूतचेतनैः निरवद्यश्रुतेन अपि आत्मा केवलेन इव बुध्यते। सरलार्थ :- निज आत्मा के विचार में निपुण रागरहित (साम्यभावरूप परिणत सम्यग्दृष्टि) जीव निर्दोष श्रुतज्ञान से भी आत्मा को केवलज्ञान के समान जानते हैं। __ भावार्थ :- जो भावश्रुतज्ञान के द्वारा आत्मा के केवल/शुद्ध स्वरूप का अनुभव करते हैं, उन्हें श्रुतकेवली कहा जाता है। जैसा कि समयसार की गाथा ९/प्रवचनसार गाथा ३३ से प्रकट है - जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं शुद्धं । तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा॥ गाथार्थ :- जो जीव निश्चय से श्रुतज्ञान के द्वारा इस अनुभव-गोचर केवल एक शुद्ध आत्मा को सन्मुख होकर जानता है, उसे लोक को प्रकाशित करनेवाले ऋषीश्वर श्रुतकेवली कहते हैं। इस गाथा में जिसे केवल/शुद्ध कहा गया है, उसे ही प्रवचनसार की ३३वीं गाथा में भी ज्ञायकस्वभावरूप बतलाया है। जिनेन्द्र भगवान ने जिस श्रुत का - सूत्ररूप आगम का निर्देश किया है, वह पौद्गलिक वचनों के द्वारा निर्दिष्ट होने से द्रव्यश्रुत है, स्वत: ज्ञानरूप न होकर पुद्गलरूप है। उसकी जो ज्ञप्ति/ जानकारी वह भावश्रुतज्ञान कहलाती है। भावश्रुतज्ञान की उत्पत्ति में कारण पड़ने से उस द्रव्यश्रुत को S [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/36]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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