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________________ जीव अधिकार ओंकार स्वरूप एकाक्षरी खिरती है। उस वाणी से सभी जीवों का कल्याण होता है। इसतरह के परमात्मपद का श्रद्धान भव्य जीव ही कर पाता है। अभव्य ऐसे भगवान के सच्चे स्वरूप का श्रद्धान नहीं कर पाता; क्योकि अभव्यो को तो ससार बढ़ाने का ही कार्य करना है। प्रवचनसार गाथा ६२ तथा पंचास्तिकाय संग्रह गाथा १६३ में भी इसीप्रकार का भाव स्पष्ट किया है। निज शुद्धात्मा का स्वरूप एवं उसके श्रद्धान का फल - यत्सर्वार्थवरिष्ठं यत्क्रमातीतमतीन्द्रियम् । श्रद्दधात्यात्मनो रूपं स याति पदमव्ययम्।।३२।। अन्वय :- (यः) आत्मनः यत् सर्वार्थवरिष्ठं यत् क्रमातीतं अतीन्द्रियं रूपं श्रद्धधाति सः अव्ययं पदं याति। सरलार्थ :- जो सर्व पदार्थों में श्रेष्ठ है, क्रमातीत अर्थात् आदि-मध्य-अंत से रहित है और अतीन्द्रिय अर्थात् इन्द्रियज्ञानगोचर नहीं है - आत्मा के ऐसे स्व-रूप का जो जीव श्रद्धान करता है, वह अविनाशी पद - मोक्ष को प्राप्त होता है।। भावार्थ :- इस श्लोक में अरहंत से भी श्रेष्ठ पद जो सिद्ध अवस्था उसकी प्राप्ति का मूल जो त्रिकाली भगवान आत्मा, उसके स्वरूप को स्पष्ट किया है । ग्रंथाधिराज समयसार में प्रत्येक आत्मा को ज्ञायक बताया है। वह ज्ञायक आत्मा सर्व परद्रव्यों से तो रहित है ही; परन्तु अपने आत्मा में ही उत्पन्न होनेवाले शुद्धाशुद्ध पर्यायों से पार एवं निर्मल है; ऐसा कहा है। उसी आत्मा के स्वरूप को इस श्लोक में स्पष्ट किया है। आत्मसाधक का एवं आत्मा का स्वरूप - निर्व्यापारीकृताक्षस्य यत्क्षणं भाति पश्यतः। तद्प मात्मनो ज्ञेयं शुद्धं संवेदनात्मकम्।।३३।। अन्वय :- निर्व्यापारीकृताक्षस्य क्षणं पश्यतः यद् भाति तद् शुद्धं संवेदनात्मकं आत्मनः रूपं ज्ञेयं। सरलार्थ :- इन्द्रिय और मन के व्यापार को रोककर एवं क्षणभर के लिये अन्तर्मुख होकर देखनेवाले योगी को आत्मा का जो रूप दिखाई देता है/अनुभव में आता है, उसे आत्मा का शुद्ध संवेदनात्मक/ज्ञानात्मक रूप जानना चाहिए। भावार्थ :- आचार्यश्री ने मूल श्लोक में मात्र अक्ष याने इन्द्रिय शब्द का प्रयोग किया है; तथापि हमने सरलार्थ में अक्ष का अर्थ मन भी इसलिए किया है कि मन को रोके बिना अन्तर्मुख होना संभव नही है। दूसरी बात मन भी इन्द्रिय ही है; क्योंकि मन भी ज्ञान का बाह्य साधन है, जीव का चिह्न है। मन को नोइन्द्रिय (अनिन्द्रिय या किश्चित् इन्द्रिय) ऐसा शास्त्र में कहा ही है। मन का विषय और स्थान निश्चित ज्ञात न होने से ही उसे नो अर्थात् किंचित् इन्द्रिय कहा है। अर्थात् आँख-नाक [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/35]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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