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________________ ३४ योगसार-प्राभृत व्यक्त करते हैं । यह नित्यानित्यात्मक (गुण नित्य हैं और पर्यायें अनित्य हैं) अथवा गुणपर्यायस्वरूप वस्तु हमारे ज्ञान में भी तर्क के आधार से समझ में आती है। इससे हम यह स्पष्ट जान सकते हैं कि प्रत्येक वस्तु भूतकाल में अनादिकाल से अनंत पर्याय सहित वर्त चुकी है। वर्तमानकाल में एक समय की पर्यायसहित वर्त रही है और भविष्य में अनंत गुण-पर्याय सहित वर्तेगी। एक द्रव्य का भी यह स्पष्ट स्वरूप केवलज्ञान के बिना कौन पूर्ण जान सकेगा? अर्थात् एकवस्तु को भी पूर्णरूप से केवली ही जान पायेंगे, अन्य कोई अल्पज्ञ नहीं। प्रश्न :- हम-आप भी शास्त्र के आधार से यह सब जान रहे हैं. केवलज्ञान की क्या आवश्यकता उत्तर :- हमारा आपका यह जानना शास्त्र के आधार से अस्पष्ट/अविशद है, केवलज्ञान विशद/ स्पष्ट रीति से पदार्थों की वर्तमानपर्यायवत् भूत-भविष्यकालीन पर्यायों को भी जानता है। इसी विषय को आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार की गाथा ५० में स्पष्ट कहा है, जो निम्नप्रकार है उप्पज्जदि जदि णाणं कमसो अट्रे पडुच्च णाणिस्स | तं व हवदि णिच्चं ण खाइगं व सव्वगदं ।। इसी का विशेष स्पष्टीकरण - वह क्रमवर्ती ज्ञान नित्य इसलिए नहीं है कि एक तो पदार्थ का अवलम्बन लेकर उत्पन्न होता है. दसरे पदार्थ के ग्रहण करने पर नष्ट हो जाता है: क्षायिक इसलिए नहीं है कि वह ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमाधीन प्रवर्तता है और सर्वगत इसलिए नहीं है कि वह अनन्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भा जानने में समर्थ नहीं है। अत: ऐसे क्रमवर्ती पराधीन ज्ञान का धनी आत्मा सर्वज्ञ नहीं हो सकता। भव्यात्मा ही परमात्मा के स्वरूप को स्वीकारता है - घातिकर्मक्षयोत्पन्नं यद्रपं परमात्मनः। श्रद्धत्ते भक्तितो भव्यो नाभव्यो भववर्धकः ।।३१।। अन्वय:- परमात्मनःघातिकर्मक्षयोत्पन्नं यद रूपं भव्यः भक्तित: श्रद्धत्ते भववर्धकः अभव्यः न (श्रद्धत्ते)। सरलार्थ :- घाति कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुये परमात्मा के जिस स्वरूप का भव्यात्मा भक्ति से श्रद्धान करता है। अभव्य जीव उसका श्रद्धान नहीं करता; क्योंकि वह अभव्य जीव स्वभाव से भववर्धक होता है। भावार्थ:- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अंतराय इन चार घाति कर्मों के क्षय से जीव को अरहंत अवस्था की प्राप्ति होती है। अरहंत परमात्मा की अवस्था को ही केवली भगवान व सकल परमात्मा भी कहते हैं। केवली अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख एवं अनंतवीर्यस्वरूप हो जाते हैं। अरहंत का स्वरूप अलौकिक होता है। उनका अधर गमन होता है। शरीर परम औदारिक होता है; अत: मैली अवस्था से रहित, स्फटिक समान शुद्ध होता है। उपदेशरूप वाणी सर्वांग से [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/34]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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