SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ योगसार-प्राभृत सरलार्थ :- जब जीव और कर्म के परस्पर में एक-दूसरे के प्रत्येक परिणाम/पर्याय के संबंध में निमित्तपना नहीं रहता अर्थात् निमित्तपना का अभाव हो जाता है, तब जीव और कर्म – दोनों का जो विश्लेष अर्थात् सर्वथा पृथक् हो जाना है, वह पृथक्पना ही मोक्ष है। भावार्थ :- मोक्ष/मुक्ति अर्थात् परस्पर में निमित्त-नैमित्तिकरूप से जो जीव और कर्म का संबंध था, उसका अभाव । यहाँ मोक्ष मात्र जीव को ही होता है ऐसा नहीं, कर्मरूप पुदगल भी जीव से सर्वथा भिन्न हो गया। इसलिए कर्म का भी मोक्ष हो गया। पहले मिथ्यात्वादि के कारण जीव को कर्म का बंध होता था। जब मिथ्यात्वादि का भूमिकानुसार अभाव होता जाता है, तदनुसार तत्-तत् संबंधी कर्मबंध होना रुक जाता है और पूर्वबद्ध कर्म धीरे-धीरे जीव से भिन्न होते रहते हैं - इसे कर्म की निर्जरा कहते हैं। निर्जरा होते-होते जीव की वीतरागता/शुद्धि बढ़ती जाती है और अन्त में जीव पूर्ण वीतराग/शुद्ध हो जाता है तथा कर्म भी जीव से भिन्न हो जाते हैं - इसे ही मोक्ष कहते हैं। ___पहले ज्ञानावरणादि कर्मों का अभाव/नाश हो जाता है और बाद में जीव मुक्त होता है ऐसा नहीं अथवा पहले जीव मुक्त हो जाता है और बाद में कर्मों का नाश हो जाता है - ऐसा भी नहीं । कर्मों का नाश और जीव का मोक्ष - ये दोनों कार्य एक समय में हो जाते हैं। कर्म का उदय और जीव का औदयिक भाव - इनमें भी समयभेद नहीं है, दोनों एक समय में होते हैं। जैसे अंधकार का जाना और प्रकाश का होना - दोनों एक ही समय में होते हैं; वैसे ही निमित्तरूप एक द्रव्य की पर्याय और नैमित्तिकरूप दूसरे द्रव्य की पर्याय - दोनों एक ही समय में होते हैं। छह द्रव्यों में कुछ द्रव्य निमित्तरूप हैं और कुछ नैमित्तिक रूप ऐसा नहीं है। कुंभकार के हाथों का हिलना कुंभ के बनने में निमित्त है और कुंभ का अलग-अलग आकार होते रहना हाथ के हिलने में निमित्त है। वैसे कर्मों का अभाव होना जीव के मुक्ति में निमित्त है और जीव का मुक्त होना अर्थात् परम शुद्धरूप परिणमन होना कर्मों के अभाव में निमित्त है। जीव का पर्याय के साथ क्षणिक तादात्म्य संबंध - __ येन येनैव भावेन युज्यते यन्त्रवाहकः । तन्मयस्तत्र तत्रापि विश्वरूपो मणिर्यथा ।।५०७।। अन्वय : - यन्त्रवाहकः (जीव:) येन येन भावेन युज्यते तत्रापि तत्र तन्मयः एव (भवति) यथा विश्वरूपः मणिः। सरलार्थ :- जिसप्रकार विश्वरूपधारी अर्थात् स्फटिकमणि उज्ज्वल है; इसलिए उसके नीचे जैसा डंक लगाते हैं वैसा ही स्फटिकमणि भासित होता है; उसीप्रकार देहरूपी यन्त्र को धारण करनेवाला जीव जिस-जिस भाव के साथ जुड़ता है, उस-उस भाव के साथ वहाँ वह तन्मय हो जाता है अर्थात् क्षणिक तादात्म्य-संबंधरूप हो जाता है। भावार्थ :- प्रवचनसार गाथा ९ तथा उसकी आचार्य अमृतचंद्र एवं जयसेन रचित टीका को [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/302]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy