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चूलिका अधिकार
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सरलार्थ :- भिन्न-भिन्न ज्ञानों से उपलब्ध अर्थात् ज्ञात होने के कारण शरीर और आत्मा में सदा परस्पर भेद है। शरीर, इंद्रियों से अर्थात् इंद्रिय-निमित्तक मतिज्ञान से जाना जाता है और आत्मा निश्चय ही स्वसंवेदनज्ञान से जानने में आता है।
भावार्थ :- शरीर पुद्गल द्रव्य है और पुद्गलों में स्पर्श, रस, गंध और वर्ण ये चार गुण तथा इनकी पर्यायें होती हैं । शब्द भी पुद्गल की ही द्रव्य-पर्याय है। इन पुद्गलों के गुण-पर्यायों का ज्ञान नियम से इंद्रियों के निमित्त से ही होता है। इस कारण जिसका ज्ञान इंद्रियों के निमित्त से होता है, वह पुद्गल द्रव्य है; ऐसा निर्णय करना सहज है। ___आत्मा में स्पर्शादि चार गुण एवं शब्दरूप पर्याय नहीं है। अतः आत्मा इंद्रिय के निमित्त से जानने में नहीं आता। आत्मा तो आत्मा से अर्थात् स्वसंवेदन ज्ञान से ही जानने में आता है। इसकारण देह और आत्मा में सदा से भिन्नता है, यह निश्चित है। कर्म एवं जीव एक-दूसरे के गुणों के घातक नहीं -
न कर्म हन्ति जीवस्य न जीवः कर्मणो गुणान् ।
वध्य-घातकभावोऽस्ति नान्योऽन्यं जीवकर्मणोः ।।५०५।। अन्वय : - कर्म जीवस्य गुणान् न हन्ति । जीवः (च) कर्मणः (गुणान्) न (हन्ति)। जीवकर्मणोः अन्योऽन्यं वध्य-घातकभावः न अस्ति।
सरलार्थ :- ज्ञानावरणादि कर्म जीव के ज्ञानादि गुणों का घात/नाश नहीं करते और जीव कर्मरूप पुद्गल के स्पर्शादि गुणों का घात नहीं करता । ज्ञातास्वभावी जीव और स्पर्शादि गुणमय कर्म इन दोनों का परस्पर एक-दूसरे के साथ वध्य-घातक भाव नहीं है - अर्थात् दोनों स्वतंत्र हैं, एक-दूसरे के घातक नहीं हैं।
भावार्थ :- अनभ्यासी लोग तो कर्म को बलवान मानते ही है; परंतु आगमाभ्यासी लोग भी कर्म जीव को संसार में अनादि से भ्रमा रहा है, ऐसी मान्यता रखते हैं। इस मिथ्या मान्यता का नाश होना अति आवश्यक है। शास्त्र में व्यवहारनय से कहे हए कर्म के नाम भी अज्ञानी को अज्ञान पोषण के लिये अनुकूल लगते हैं; जैसे ज्ञानावरण, दानान्तराय आदि।
प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। कोई किसी का कुछ बिगाड-सुधार नहीं करता - जिनागम का यह मूल विषय समझना चाहिए, इस श्लोक में यही बात स्पष्ट की है। जीव कर्म का घात करता है, ऐसा तो अज्ञानी नहीं मानता; लेकिन कर्म जीव के ज्ञानादि गुणों का घात करता है, यह मिथ्या मान्यता चलती है। इस मान्यता पर यह श्लोक कुठाराघात करता है। निमित्त के अभाव में मोक्ष -
यदा प्रतिपरीणामं विद्यते न निमित्तता।
परस्परस्य विश्लेषस्तयोर्मोक्षस्तदा मतः ।।५०६।। अन्वय : - यदा (जीवकर्मणोः) परस्परस्य परीणामं प्रति निमित्तता न विद्यते तदा तयोः (जीव-कर्मणोः परस्परस्य) विश्लेषः (जायते सः) मोक्षः मतः।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/301]