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चूलिका अधिकार
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ही यहाँ ग्रंथकार ने मात्र एक ही श्लोक में देने का सफल प्रयास किया है। परमात्मप्रकाश अध्याय दूसरा दोहा १७३ एवं उसकी टीका में भी इसी विषय को बताया गया है। इसलिए पाठक दोनों ग्रंथों का जरूर अवलोकन करें।
उक्त दोनों ग्रंथों में तो मात्र द्रव्य परिणमन करता है यह बताया है और यहाँ ग्रंथकार ने तन्मय होने की बात कही है। यहाँ तन्मय होने का अर्थ नित्य तादात्म्य-संबंध न लेकर क्षणिक तादात्म्यसंबंध होता है, ऐसा समझना चाहिए। आत्मभावना के अभ्यास की प्रेरणा -
तेनात्मभावनाभ्यासे स नियोज्यो विपश्चिता।
येनात्ममयतां याति निर्वृत्यापरभावतः ।।५०८।। अन्वय : - येन अपरभावतः निर्वृत्य आत्ममयतां याति तेन विपश्चिता सः (आत्मा) आत्मभावनाभ्यासे नियोज्यः।
सरलार्थ :- चूँकि परभाव से निवृत्त होकर अर्थात् परभावों को छोड़कर ही आत्मा आत्मरूपता को प्राप्त होता है; इसलिए विद्वानों को यही योग्य है कि वे अपनी आत्मा को आत्मभावना में लगावें।
भावार्थ :- ग्रंथकार विद्वानों को आत्मभावना में संलग्न होने की प्रेरणा दे रहे हैं। प्रश्न :- विद्वानों को ही क्यों प्रेरणा दे रहे हैं? अन्य सामान्य लोगों को प्रेरणा क्यों नहीं दी?
उत्तर :- जिसप्रकार वैद्य जिस मरीज पर उपचार सफल होगा, उसे ही औषधियाँ देते हैं, सलाह देते हैं, जो एकदम मरणासन्न है उसे नहीं। उसीप्रकार यहाँ ग्रंथकार भी जिसपर उपदेश कार्यकारी होवे उसे ही उपदेश देते हैं, अन्य अपात्रों को नहीं।
आत्मभावना आत्मा में तन्मयता की पूर्व भूमिका है। जिसे आत्मा की भावनारूप शुभोपयोग भी न हो उसे आत्ममग्नतारूप शुद्धोपयोग नहीं हो सकता। अशुभोपयोग से सीधा शुद्धोपयोग में गमन नहीं हो सकता। शुद्धोपयोग शुभोपयोगपूर्वक ही होता है, यह नियम है। इसलिए दिगंबर वीतरागी संत भी जब शुद्धोपयोग में स्थिर नहीं रह पाते हैं, तब शुभोपयोग का स्वीकार करते हैं और शुद्धोपयोग का प्रयास जारी रखते हैं। यहाँ यह भी नहीं समझना चाहिए कि शुभोपयोग शुद्धोपयोग का उत्पादक अर्थात् कर्ता है, मात्र इतना ही समझना चाहिए कि शुभोपयोग की भूमिका के बिना शुद्धोपयोग नहीं होता। इसलिए यहाँ ग्रंथकार परभावों को छोड़कर आत्मभावनारूप शुभोपयोग की प्रेरणा दे रहे हैं, जो निश्चयधर्म प्रगट करने के लिये उपयोगी सिद्ध हो सकता है; परंतु नियमरूप नहीं है।
निज भगवान आत्मा के आश्रय से धर्म प्रगट होगा - ऐसी श्रद्धा है और प्रयास भी तदनुसार चलता है, इसकारण शुभोपयोग हो ही जाता है और परभाव से निवृत्त होने का काम भी हठ के बिना होता है। इस सहज त्याग को ही परभाव से निवृत्त होना कहते हैं।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/303]