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________________ २७६ योगसार-प्राभृत शास्त्रसम्मत ही है। यह मर्म न समझने के कारण पुण्य को ही धर्म का उत्पादक मानना भी गलत है और धर्म प्रगट होने के पहले पुण्य-परिणाम होते ही नहीं, यह मानना भी उचित नहीं है। विवक्षा समझकर यथार्थ निर्णय करना अनिवार्य है। सर्वोत्तम चारित्र के धारक योगीश्वर का स्वरूप - (स्रग्धरा) राग-द्वेष-प्रपञ्च-भ्रम-मद-मदन-क्रोध-लोभ-व्यपेतो यश्चारित्रं पवित्रं चरति चतुरधीर्लोकयात्रानपेक्षः। सध्यात्वात्म-स्वभावं विगलितकलिलं नित्यमध्यात्मगम्यं त्यक्त्वा कर्मारि-चक्रं परम-सुख-मयं सिद्धिसद्म प्रयाति ।।४५६।। अन्वय :- यः चतुरधी: (योगी) राग-द्वेष-प्रपञ्च-भ्रम-मद-मदन-क्रोध-लोभ-व्यपेतः लोकयात्रानपेक्ष: पवित्रं चारित्रं चरति स: अध्यात्मगम्यं विगलितकलिलं आत्मस्वभावं नित्यं ध्यात्वा कर्मारिचक्रं त्यक्त्वा परमसुखमयं सिद्धिसद्म प्रयाति। सरलार्थ :- जो चतुरबुद्धि योगीश्वर राग-द्वेषरूप प्रपंच/छलादि परिणाम, भ्रम, मद, मान, कामभाव क्रोध और लोभ से रहित होकर लोकयात्रा अर्थात संसार के व्यवहार की अपेक्षा न रखता हुआ उपर्युक्त चारित्ररूप प्रवृत्त होता है; वह सर्वथा पाप रहित शुद्धात्मस्वभाव का सदा ध्यान करते हुए कर्मरूपी शत्रुओं के समूह का भेदकर/नष्ट कर परमसुखमय सिद्धिसदन अर्थात् मुक्ति-महल को प्राप्त होता है। भावार्थ :- यह चारित्र अधिकार का अंतिम श्लोक है। सर्वोत्तम शुद्धिरूप चारित्र ही मोक्षदाता है, यह विषय यहाँ स्पष्ट किया है। यहाँ योगीश्वर के कुछ खास विशेषण दिये हैं, जैसे - राग-द्वेषादि विकारी परिणामों से रहित होना एवं लोकयात्रा की अपेक्षा न करना - इन दोनों विशेषणों से योगीश्वर की पूर्ण वीतरागता स्पष्ट होती है। चतुरधी अर्थात् बुद्धि की चतुरता इस विशेषण से हम उनके सर्वोत्तम शुद्धोपयोगरूप अवस्था को जान सकते हैं, इसे शुद्धात्मा का ध्यान भी कह सकते हैं। कर्मारिचक्रं त्यक्त्वा से घाति-अघाति कर्मों के नाश का संकेत समझ में आता है। परम सुखमय शब्द से अव्याबाध अनंत सुखरूप अवस्था स्पष्ट होती है। संक्षेप में कहा जाय तो यह श्लोक १४वें गुणस्थान में होनेवाले कार्य का ज्ञान कराता है; जिसके बाद नियम से मुक्तावस्था की प्राप्ति होती है, जो साधक के सर्वोत्तम चारित्र का स्थान है। इसतरह ग्रंथकार ने चारित्र अधिकार का समापन किया है। इसप्रकार श्लोक क्रमांक ३५७ से ४५६ पर्यन्त कुल १०० श्लोकों में यह आठवाँ 'चारित्रअधिकार' पूर्ण हुआ। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/276]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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