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चारित्र अधिकार
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यदि व्यवहार चारित्र अर्थात् पुण्यपरिणाम से निश्चयधर्म अर्थात् वीतरागता प्रगट होती है; ऐसा मानेंगे तो शुद्धोपयोग का कारण शुभोपयोग मानना पड़ेगा। इसे स्वीकारते ही शुभोपयोग का कारण अशुभोपयोग मानना आनिवार्य हो जायगा, जो वास्तविक नहीं हैं। ___ इस विषयसंबंधी विशेष स्पष्टीकरण हेतु मोक्षमार्गप्रकाशक के सातवें अधिकार का पृष्ठ २५६ अवश्य देखें। _इस श्लोक से हमें यह भी समझना आवश्यक है कि जिस किसी भी जीव को निश्चयधर्म की प्राप्ति होती है. वह व्यवहार धर्मपर्वक ही होती है. अन्यक्रम से नहीं। जिनेंद्रप्रणीत व्यवहारचारित्र/ पुण्यरूप धर्म निश्चय चारित्र का/वीतराग परिणाम का पूर्वचर कारण मानना चाहिए। व्यवहार चारित्र निश्चय चारित्र का सहचर कारण भी होता है; तथापि अज्ञानीजन व्यवहार धर्म को निश्चयधर्म का कर्तारूप कारण अथवा उत्पादक कारण मानते हैं, जबकि निमित्तरूप कारण मानना वास्तविक है।
करणानुयोग के कथनानुसार प्रथम, चतुर्थ अथवा पंचम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज शुभोपयोग की भूमिका में स्वभावसन्मुख पुरुषार्थ से शुद्धोपयोगपूर्वक सीधे सप्तम अर्थात् अप्रमत्तविरत गुणस्थान को प्राप्त कर भावलिंगी मुनिराज हो जाते हैं; इससे भी सब विषय सहज स्पष्ट होता है। व्यवहार चारित्र शुद्धात्मा के ध्यान में कारण -
(वंशस्थ) इदं चरित्रं विधिना विधीयते ततः शुभध्यान-विरोधि-रोधकम् । विविक्त-मात्मान-मनन्त-मीशते
न साधवो ध्यातुमृतेऽमुना यतः।।४५५।। अन्वय :- यतः साधवः अमुना (व्यवहारचारित्रेण) ऋते विविक्तं अनन्तं आत्मानं ध्यातुं न ईशते ततः इदं शुभध्यान-विरोधि-रोधकं चरित्रं विधिना विधीयते । ___ सरलार्थ :- चूँकि साधक व्यवहारचारित्र के बिना शुद्ध-अनन्त आत्मा का ध्यान करने में समर्थ नहीं होते हैं, अत: वे अशुभध्यान को रोकने में समर्थ ऐसे इस व्यवहारचारित्र का विधिपूर्वक आचरण करते हैं।
भावार्थ :- अशुभ ध्यान का अर्थ आर्त एवं रौद्र ध्यान ही समझना चाहिए । शुभोपयोगरूप व्यवहारचारित्र जीव को अशुभ से बचाता हुआ शुद्धोपयोग के लिए अनुकूल होता है।
जब कभी किसी भी जीव को शुद्धोपयोगरूप मोक्षमार्ग का उत्पाद/प्रारंभ होता है वह शुभोपयोगरूप व्यवहारधर्म के व्ययपूर्वक ही होता है; अशुभोपयोग के अभावपूर्वक नहीं। इस अपेक्षा से पुण्य के कारण ही धर्म उत्पन्न होता है; ऐसा व्यवहारनय से कथन करना और मानना भी
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/275]