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योगसार-प्राभृत
सरलार्थ :- वीतराग-सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहा गया २८ मूलगुणरूप चारित्र, वह मोक्ष के लिये अनुकूल मार्ग (उपाय ) है और वीतराग तथा सर्वज्ञता से रहित किसी अन्य वक्ता द्वारा कहा गया चारित्र, वह संसार के लिये अनुकूल मार्ग है।
भावार्थ : :- असत्य कथन के लिये दो कारण जगतप्रसिद्ध है - एक कारण मोह-राग-द्वेष और दूसरा कारण अज्ञान / जानकारी का अभाव । जिनेंद्र भगवान वीतरागी होने से मोह - राग-द्वेषरूप विकारी भावों से सर्वथा रहित हुए हैं; अतः अत्यन्त स्वस्थचित्त अर्थात् मध्यस्थ / साक्षीस्वरूप हो गये हैं। इसकारण उनको कोई अपना अथवा पराया रहा ही नहीं ।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे सर्वज्ञ हो चुके हैं, सच्चे मोक्षमार्ग का तथा अन्य अनंत विषयों का उन्हें पूर्ण ज्ञान है। अब उन्हें जानना कुछ बचा ही नहीं है । इसकारण अब उन्हें असत्य कथन करने का कुछ कारण ही नहीं रहा । इसलिए वे जो कुछ कथन करेंगे वह नियम से सर्वथा सत्य ही होगा । अतः जिनेन्द्र-कथित व्यवहार चारित्र मोक्षमार्ग तथा मोक्ष के लिये अनुकूल ही रहता है ।
जिनेंद्र भगवान को छोड़कर धर्म का कथन करनेवाले जो अन्य वक्ता हैं, वे वीतरागी तथा सर्वज्ञ न होने से उनका उपदेश निर्दोष हो ही नहीं सकता। उनसे प्रतिपादित व्यवहार चारित्र (जिसे लौकिक अपेक्षा से ही स्थूलरूप से व्यवहारचारित्र कहा है) मोक्षमार्ग एवं मोक्ष का कारण न होने से दुःखरूप तथा दुःखकारक संसार का ही कारण होना स्वाभाविक है।
जिनेंद्र - कथित व्यवहार चारित्र मोक्ष के लिये अनुकूल होने का कारण -
चारित्रं चरतः साधोः कषायेन्द्रिय - निर्जयः । स्वाध्यायोऽतस्ततो ध्यानं ततो निर्वाणसंगमः । । ४५४ । ।
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अन्वय :- (जिन - भाषितं ) चारित्रं चरतः साधोः कषायेन्द्रिय - निर्जय: (भवति) । अत: स्वाध्याय: (भवति) । तत: ( स्वाध्यायतः ) ध्यानं ( जायते) तत: (ध्यानात् ) निर्वाणसंगम: ( जायते) ।
सरलार्थ :- जिनेंद्र-कथित २८ मूलगुणरूप व्यवहार चारित्र का यथार्थ आचरण करने से क्रोधादि कषायों का एवं स्पर्शनेंद्रियादि इंद्रियों का जीतना होता है। इनको जीतने से शास्त्र का स्वाध्याय/निजात्मा का ज्ञान तथा अनुभव होता है। इस कारण आत्मध्यान होता है । आत्म-ध्यान मुक्ति की प्राप्ति होती है ।
भावार्थ :- व्यवहार चारित्र से मुक्ति की प्राप्ति पर्यंत का सर्वक्रम इस श्लोक में बता दिया है; तथापि इस कथन को व्यवहार का / उपचार का ही कथन समझना चाहिए; क्योंकि अभव्य जीव अथवा दुरानुदूर भव्य जीव भी व्यवहारचारित्र का आचरण करते हुए संसार के ही नेता बने रहते हैं एवं संसार में चारों गतियों में दुःख भोगते हुए भटकते हैं । वास्तव में यथार्थ व्यवहारचारित्र भी निश्चयचारित्र के बिना नहीं होता; अत: मिथ्यादृष्टि जीवों का चारित्र व्यवहारचारित्र भी नहीं है, वह तो व्यवहाराभास है ।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/274]