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चूलिका-अधिकार
मुक्तजीव सदा आनन्दित रहते हैं -
दृष्टिज्ञानस्वभावस्तु सदानन्दोऽस्ति निर्वृतः।
नचैतन्य-स्वभावस्य नाशो नाश-प्रसङ्गतः ।।४५७।। अन्वय :- निर्वृतः (जीव:) तु दृष्टिज्ञानस्वभावः सदानन्दः अस्ति । (तस्य) चैतन्य स्वभावस्य (कदापि) नाश: न (जायते; जीवद्रव्यस्य) नाश-प्रसङ्गतः।
सरलार्थ :- निर्वृति अर्थात् मुक्तअवस्था को प्राप्त हुआ जीव दर्शन-ज्ञान स्वभाव को धारण किये हुए सदा/अनंतकालपर्यंत अनंत-अव्याबाध सुखरूप रहता है। जीव के दर्शन-ज्ञानरूप चैतन्य स्वभाव का कभी नाश नहीं होता; क्योंकि स्वभाव का नाश मानने से जीव द्रव्य के ही नाश का प्रसंग उपस्थित होता है, जो अशक्य है।
भावार्थ :- चूलिका का अर्थ आगम में विभिन्न प्रकार से आता है - १. पर्वत के ऊपर क्षुद्र पर्वत सरीखी चोटी; २. सर्व अनुयोगद्वारों से सूचित अर्थों की विशेष प्ररूपणा करनेवाली ही
चूलिका हो, यह कोई नियम नहीं है, किन्तु एक, दो अथवा सब अनुयोगद्वारों से सूचित अर्थों की विशेष प्ररूपणा करना चूलिका है; ३. विशेष व्याख्यान, उक्त या अनुक्त व्याख्यान अथवा उक्तानुक्त अर्थ का संक्षिप्त व्याख्यान - ऐसे तीन प्रकार चूलिका शब्द का अर्थ जानना चाहिए। उपर्युक्त तीनों अर्थों में से तीसरा अर्थ ही यहाँ उपयक्त प्रतीत होता है। __ इस श्लोक में ग्रंथकार ने मुक्तजीव के स्वरूप का कथन किया है। इस कथन से स्वयमेव वैशेषिक मत का निरसन हो जाता है। वैशेषिक मत के अनुसार मुक्तावस्था में जीव के चेतना आदि गुणों का नाश हो जाता है। अरहंत के मतानुसार एवं वस्तुस्वभाव की दृष्टि से किसी भी द्रव्य का नाश तो होता ही नहीं, इतना ही नहीं जिन गुणों के समूहरूप द्रव्य सहज निष्पन्न हैं, उन गुणों का भी कभी नाश नहीं होता । जाति की अपेक्षा जीवादि छहों द्रव्यों का और संख्या की अपेक्षा अनंतानंत जीवादि द्रव्यों का तो नाश होता ही नहीं और प्रत्येक द्रव्य में विद्यमान किसी भी गुण का कभी नाश नहीं होता । यह वस्तुस्वरूप तर्क एवं अनुमान से भी स्पष्ट समझ में आता है। मुक्तात्मा का चैतन्य निरर्थक नहीं -
सर्वथा ज्ञायते तस्य न चैतन्यं निरर्थकम् । स्वभावत्वेऽस्वभावत्वे विचारानुपपत्तितः ।।४५८।।
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