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चारित्र अधिकार
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श्रद्धा की पर्याय को ग्रहण करना प्रकरणानुसार योग्य एवं महत्त्वपूर्ण है।
कर्म-फल को भोगनेवालों की बुद्धि आदि के कारण भी फल में भिन्नता की बात कही है। फल-भोगनेवालों में भेद के कारण -
बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहस्त्रिविधः प्रक्रमः स्मृतः ।
सर्वकर्माणि भिद्यन्ते तद्भेदाच्च शरीरिणाम् ।।४३७।। अन्वय :- बुद्धिः ज्ञानम् असंमोहः (इति) त्रिविधः प्रक्रमः स्मृतः । तद्भेदात् च (बुद्ध्यादिभेदात्) शरीरिणां सर्वकर्माणि भिद्यन्ते । __सरलार्थ :- बुद्धि, ज्ञान और असंमोह - इन तीनों से कर्म-फल में भेद होता है और इनसे ही देहधारी जीवों के सब कार्य भेद को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ :- अगले श्लोक में ग्रंथकार स्वयं बुद्धि आदि की परिभाषा स्पष्ट करते हैं। बुद्धि आदि का स्वरूप -
बुद्धिमक्षाश्रयां तत्र ज्ञानमागमपूर्वकम् ।
तदेव सदनुष्ठानमसंमोहं विदो विदुः ।।४३८।। अन्वय :- विदः तत्र (बुद्ध्यादिभेदेषु) अक्षाश्रयां बुद्धिम्, आगमपूर्वकं ज्ञानं, तत् (ज्ञानम्) एव सदनुष्ठानं (प्राप्नोति तदा) असंमोहं विदुः।।
सरलार्थ :- विज्ञ पुरुषों ने बुद्धि आदि की परिभाषा निम्नानुसार स्पष्ट की है - इंद्रियाश्रित भाव को बुद्धि कहते हैं । आगमपूर्वक उत्पन्न जाननरूप परिणाम को ज्ञान कहते हैं और जब आगमपूर्वक प्राप्त ज्ञान ही सत्य अनुष्ठान को अर्थात् निर्मोहरूप स्थिरता को प्राप्त होता है, तब उसे असम्मोह कहते हैं।
भावार्थ :- श्लोक में ग्रंथकार ने बुद्धि और ज्ञान को भिन्नरूप से स्पष्ट किया है, यह विशेष बात है। असम्मोह शब्द से ग्रंथकार यहाँ वीतरागता को बता रहे हैं। बुद्ध्यादि पूर्वक कार्यों के फलभेद की दिशासूचना -
चारित्रदर्शनज्ञानतत्स्वीकारो यथाक्रमम् ।
तत्रोदाहरणं ज्ञेयं बुद्ध्यादीनां प्रसिद्धये ।।४३९।। अन्वय :- (यत्) यथाक्रमं चारित्र-दर्शन-ज्ञान-तत्-स्वीकारः (अस्ति)। तत्र बुद्ध्यादिनां प्रसिद्धये उदाहरणं ज्ञेयम् ।
सरलार्थ :- चारित्र-दर्शन-ज्ञान का यथाक्रम स्वीकार अर्थात् दर्शन-ज्ञान-चारित्र के क्रम से जो स्वीकार है, उसमें बुद्धि आदि की प्रसिद्धि के लिए यहाँ उदाहरणरूप से भेद को जानना चाहिए। ____ भावार्थ :- बुद्धि आदि की विशेषता को दर्शाने के लिये यहाँ जिस फलभेद के उदाहरण की बात कही गई है उसे संक्षेपतः अगले कुछ पद्यों में बतलाया गया है।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/267]