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योगसार-प्राभृत
न अश्नुते, तथा भव-कान्तारे पतित: अशास्त्रज्ञः कुमार्ग-अपरिहारत: मुक्ति-प्रवेशकं मार्गं न आप्नोति।
सरलार्थ :- जिसप्रकार दुर्गम वन में पड़ा अर्थात् फँसा हुआ अँधा मनुष्य खड्डे आदि प्रतिकूल स्थानों का परित्याग न कर सकने से अपने इष्ट अर्थात् अभिप्रेत स्थान में प्रवेश करानेवाले मार्ग को नहीं पा सकता है।
उसीप्रकार चतुर्गतिरूप दुःखद संसार-वन में भटकता हुआ शास्त्रज्ञान से रहित जीव कुमार्ग का त्याग न कर सकने से मुक्ति में प्रवेश करानेवाले मोक्षमार्ग को प्राप्त नहीं होता अर्थात् उस सन्मार्ग पर नहीं लगता, जिसपर चलने से मुक्ति की प्राप्ति होती है। __ भावार्थ :- साधक वह भले श्रावक अथवा साधु हो, इनको शास्त्र-ज्ञान की अनिवार्यता इन दो श्लोकों में बताई गई है, जो वास्तविक है। इन दो श्लोकों के द्वारा शास्त्र की उपयोगिता, आवश्यकता एवं महिमा का उपसंहार किया है। परिणाम से ही कर्मफल में विविधता -
यतः समेऽप्यनुष्ठाने फलभेदोऽभिसन्धितः। स ततः परमस्तत्र ज्ञेयो नीरं कृषाविव ।।४३५।। बहुधा भिद्यते सोऽपि रागद्वेषादिभेदतः ।
नानाफलोपभोक्तृणां नृणां बुद्ध्यादिभेदतः ।।४३६।। अन्वय :- यतः समे अनुष्ठाने (सति) अपि कृषौ नीरं (परम:) इव (परिणामतः) फलभेदः अभिसन्धितः (भवति)। ततः तत्र (फलप्राप्तौ) सः (परिणाम:) परमः ज्ञेयः।
सः (परिणाम:) अपि राग-द्वेषादि भेदतः (तथा) नानाफलोपभोक्तृणां नृणां बुद्ध्यादिभेदतः बहुधा भिद्यते।
सरलार्थ :- जिसप्रकार खेती में जोतने-बीज बोने आदि रूप बाह्य कार्य समान होने पर भी उस खेत में दिये जानेवाले जल को विशेष स्थान प्राप्त है अर्थात् जल समय पर एवं आवश्यक मात्रा में देने न देने के कारण फसलरूप फल अर्थात् कार्य हीनाधिक होता है।
उसीप्रकार पुण्य-पापरूप बाह्य-क्रिया/कार्य समान होने पर भी जीव के हीनाधिक शुभाशुभ परिणाम के अनुसार कर्म-फल में भेद होता है। इसलिए कर्म-फल की प्राप्ति में जीव के परिणाम/ अभिप्राय को मुख्य स्थान प्राप्त है । वह जीव का अभिप्राय भी राग-द्वेषादि के भेद से तथा कर्म-फल का उपभोग करनेवाले विविध मनुष्यों की बुद्धि आदि के भेद से अनेक प्रकार का है।
भावार्थ :- इन दोनों श्लोक में व्यवहार चारित्र की क्रिया समान होने पर भी कर्म-फल में अभिप्रायानुसार भेद होता है; यह बात उदाहरणपूर्वक सुगमरूप से बताई है।
सरलार्थ में प्रयुक्त परिणाम' शब्द का अर्थ अभिप्राय अर्थात् मिथ्यात्वरूप अथवा सम्यक्त्वरूप
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/266]