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चारित्र अधिकार
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कुछ पुरुषार्थ नहीं है । इसलिए वे मोक्षमार्गरूप नहीं, मोक्षमार्ग में अनुकूल निमित्तरूप भी नहीं अर्थात् विपरीत फलदाता हैं-संसारवर्धक हैं।
उदाहरण सहित शास्त्र की उपयोगिता -
यथोदकेन वस्त्रस्य मलिनस्य विशोधनम् ।
रागादि-दोष- दुष्टस्य शास्त्रेण मनसस्तथा ।। ४३१।।
अन्वय : - यथा मलिनस्य वस्त्रस्य उदकेन विशोधनं (भवति) । तथा रागादि-दोष- दुष्टस्य मनस: शास्त्रेण (विशोधनं ) ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार मलिन वस्त्र जल से शुद्ध / पवित्र / निर्मल होता है, उसीप्रकार रागद्वेषादि से दूषित साधक का मन शास्त्र के अध्ययनादि से निर्मल अर्थात् वीतरागरूप बन जाता है। भावार्थ :- श्लोक में मन शब्द आया है - उसका अर्थ आत्मा है। राग-द्वेषादि विभाव भावों से आत्मा मलिन होता है उसे निर्मल/वीतराग करना आवश्यक है और यह कार्य, साधक शास्त्र के आधार/निमित्त से कर सकता है।
शास्त्र के अध्ययन की
पुनः प्रेरणा
आगमे शाश्वती बुद्धिर्मुक्तिस्त्री-शंफली यतः ।
ततः सा यत्नतः कार्या भव्येन भवभीरुणा ।। ४३२ ।।
अन्वय :- यत: आगमे (युक्ता) शाश्वती बुद्धि: मुक्तिस्त्री-शंफली (इव अस्ति ) । तत: भवभीरूणा भव्येन यत्नत: सा (आगमे बुद्धिः) कार्या ।
सरलार्थ :- शास्त्र के अध्ययन-मनन-चिंतन आदि में निरंतर संलग्न बुद्धि मुक्तिरूपी स्त्री की प्राप्ति के लिये दूती के समान काम करती है; इसलिए संसार अर्थात् राग-द्वेषादि परिणामों से उत्पन्न दुःख से भयभीत भव्य जीवों को अपनी बुद्धि को प्रयत्नपूर्वक शास्त्र में लगाना चाहिए ।
भावार्थ :- - श्लोक में भव्य और भवभीरू दो शब्द आये हैं - वे दोनों अति महत्त्वपूर्ण हैं | अभव्य जीव ११ अंग और ९ पूर्व तक शास्त्रों का अध्ययन करता है; तथापि भव्य न होने से संसार
मुक्त नहीं हो पाता । भव्य जीव भी हो तथापि जिसे संसार में सुख का भ्रम हो तो वह भी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर पाता । इसलिए भव्य और भवभीरू जीव ही मुक्ति प्राप्त कर सकता है, अन्य नहीं । इसलिए पात्र जीवों को आगम में बुद्धि लगाने की प्रेरणा ग्रंथकार ने दी है।
शास्त्रज्ञान से रहित साधक का स्वरूप -
कान्तारे पतितो दुर्गे गर्ताद्यपरिहारतः । यथाऽन्धो नाश्नुते मार्गमिष्टस्थान - प्रवेशकम् ।।४३३॥ पतितो भव - कान्तारे कुमार्गापरिहारतः । तथा नाप्नोत्यशास्त्रज्ञो मार्ग मुक्तिप्रवेशकम् ।।४३४।।
अन्वय :- यथा दुर्गे कान्तारे पतितः अन्धः गर्तादि- अपरिहारत: इष्ट-स्थान- प्रवेशकं मार्गं
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