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योगसार-प्राभृत
२६८ बुद्धिपूर्वक कार्य का फल -
बुद्धिपूर्वाणि कर्माणि समस्तानि तनूभृताम् ।
संसारफलदायीनि विपाकविरसत्वतः ।।४४०।। अन्वय :- तनूभृतां बुद्धिपूर्वाणि समस्तानि कर्माणि विपाकविरसत्वतः (भवन्ति । ततः तानि) संसारफलदायीनि (एव सन्ति)।
सरलार्थ :- बुद्धिपूर्वक कार्य अर्थात् इंद्रियों के निमित्त से होनेवाले सब कार्य फलकाल में विभावरूप से व्यक्त होते हैं; इसलिए देहधारी जीवों के वे सर्व कार्य संसार-फलदाता ही है।
भावार्थ :- देहधारी जीवों की पाँच इंद्रियाँ हैं - स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेंद्रिय, चक्षुरिंद्रिय और कर्णेन्द्रिय । ये पाँचों इंद्रियाँ मात्र अपने-अपने स्पर्श, रस, गंध, वर्ण एवं शब्दरूप बाह्य विषय को ही जानती हैं। इन विषयों को जानने से जीव को राग-द्वेष ही उत्पन्न होते हैं । अतः बुद्धिपूर्वक कार्य का फल संसार है।
किसी भी इंद्रिय का विषय आत्मा है ही नहीं। जब तक बुद्धिपूर्वक ज्ञान का ज्ञेय भी आत्मा नहीं बनेगा तब तक धर्म प्रगट करने की सामान्य भूमिका भी नहीं बन सकती। ज्ञानपूर्वक कार्य का फल -
तान्येव ज्ञान-पूर्वाणि जायन्ते मुक्तिहेतवे।
अनबन्धः फलत्वेन श्रतशक्तिनिवेशितः॥४४२।। अन्वय :- तानि (बुद्धिपूर्वाणि कर्माणि) एव (यदा) ज्ञान-पूर्वाणि जायन्ते (तदा ते) मुक्तिहेतवे (जायन्ते; यतः) श्रुतशक्तिनिवेशित: अनुबन्धः फलत्वेन ।
सरलार्थ :- बुद्धिपूर्वक होनेवाले कार्य ही जब आगम-ज्ञानपूर्वक होने लगते हैं तो वे ही कार्य मोक्ष के लिये कारणरूप अर्थात् मोक्षमार्गरूप बन जाते हैं; क्योंकि श्रुतशक्ति को लिये हुए जो अनुराग है वह क्रम से/परंपरा से मोक्षरूप फल का दाता हो जाता है।
भावार्थ :- इस श्लोक में आगम की तो महिमा बतायी ही है और साथ ही साथ राग परिणाम को व्यवहारनय से वीतरागता का कारण कहा है, जो निमित्त की अपेक्षा से सही है।
वस्तुतः राग कभी वीतरागता का कारण नहीं हो सकता। विष कभी अमृत का काम नहीं करता; तथापि निमित्त की मुख्यता से पात्र जीवों को प्रेरणा देते हुए करुणावंत ग्रंथकार ने आसन्न भव्य जीवों पर उपकार किया है। असंमोहपूर्वक कार्य का फल -
सन्त्यसंमोहहेतूनि कर्माण्यत्यन्तशुद्धितः।
निर्वाणशर्मदायीनि भवातीताध्वगामिनाम् ।।४४२।। अन्वय :- (यानि) कर्माणि असंमोहहेतूनि सन्ति (तानि) अत्यन्त-शुद्धितः भवातीताध्वगामिनां निर्वाणशर्मदायीनि (भवन्ति )।
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