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योगसार-प्राभृत
मान्य प्रवचनसार गाथा २६३ का अर्थ इस श्लोक के अर्थ का पोषक है, अत: उस गाथा को टीका सहित देखें।
आचार्य जयसेन ने टीका के अंत में जो भाव दिया है. उसका हिन्दी अनवाद इसप्रकार है। यहाँ भाव यह है जो वह हाथ में आया हुआ आहार दूसरों को नहीं देता है, उससे मोह रहित आत्मतत्त्व की भावनारूप मोहरहितता अर्थात् वीतरागता ज्ञात होती है। चारित्र-आचरण में यथायोग्य दिशाबोध -
बालो वृद्धस्तपोग्लानस्तीव्रव्याधि-निपीडितः।
तथा चरतु चारित्रं मूलच्छेदो यथास्ति नो ।।४२१।। अन्वय :- बाल: वृद्धः, तप: ग्लान: तीव्रव्याधि-निपीडित: (साधुः) तथा चारित्रं चरतु यथा मूलच्छेदः नो अस्ति।
सरलार्थ :- जो मुनिराज छोटी उमर के (बालक) हों, वृद्ध-अवस्था को प्राप्त हुए हों, दीर्घकाल से उपवासादिक अनुष्ठान करनेवाले तपस्वी हों, रोगादिक से जिनका शरीर कृश हुआ हों अथवा किसी तीव्र व्याधि से शरीर पीड़ित हों, उन्हें चारित्र का उसप्रकार से पालन करना चाहिए, जिससे मूलगुणों का विच्छेद अथवा चारित्र का मूलत: विनाश न होने पावे।
भावार्थ :- ग्रंथकार ने बाल, वृद्ध, तपस्वी, ग्लान और व्याधि पीड़ित आदि का नाम लेकर सब प्रकार की प्रतिकूलताओं से घिरे हुए मुनिराजों का इसमें समावेश कर लिया है। इन सबको ग्रंथकार सलाह दे रहे हैं।
यहाँ मूलगुणों का विच्छेद अथवा चारित्र का मूलत: नाश न होने पावे, ऐसा कहकर ग्रंथकार ने इसमें व्यवहार तथा निश्चय दोनों प्रकार के चारित्र को लिया है। मूलगुणों का विच्छेद न हों अर्थात् सामायिक संयम के साथ २८ मूलगुणों में एक भी मूलगुण का नाश न होने पावे, ऐसा आचरण आवश्यक है। इसका अर्थ प्रतिकूलता का प्रसंग आ जाय तो मूलगुणों में छूट संभव नहीं है, ऐसा स्पष्ट संकेत व्यक्त किया है।
दूसरी बात अथवा कहकर चारित्र का मूलत: विनाश न होने पावे, इससे तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक व्यक्त वीतरागता को सुरक्षित रखने के लिये प्रेरणा दी है। वास्तविक देखा जाय तो वीतरागता ही चारित्र है, धर्म है । मुनिजीवन में तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक व्यक्त वीतरागता ही निश्चय चारित्र है। यह वीतरागता न हो तो सच्चा मुनिपना नहीं है।
प्रवचनसार गाथा २३० और इसकी दोनों आचार्यों की टीका में मुनिराज के उत्सर्गमार्गअपवादमार्ग को बताते हुए सर्वोत्तम खुलासा किया है, उसे जरूर देखें। स्वल्पलेपी मुनिराज का स्वरूप -
आहारमुपधिं शय्यां देशं कालं बलं श्रमम् ।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/260]