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चारित्र अधिकार
२६१ वर्तते यदि विज्ञाय स्वल्पलेपो' यतिस्तदा ।।४२२।। अन्वय :- यदि यति: आहारं उपधिं शय्यां देशं कालं बलं (च) श्रमं विज्ञाय वर्तते, तदा (सः) स्वल्पलेपः (भवति)। ___ सरलार्थ :- यदि यति/मुनिराज आहार, परिग्रह, देश, काल, बल और श्रम को भले प्रकार जानकर प्रवृत्त होते हैं तो वे अल्पलेपी होते हैं अर्थात् मुनिराज को थोड़े कर्म का बंध होता है।
भावार्थ :- इस श्लोक में उपधि' शब्द आया है, उसका अर्थ देहमात्र परिग्रह करना चाहिए अथवा पीछी कमंडलु और शास्त्र भी कर सकते हैं; अन्य नहीं । आहार शब्द से अनुदिष्टरूप से मिलनेवाला आहार ही अपेक्षित है। आचार्य जयसेन ने इस श्लोक के अर्थ की वाचक गाथा २६५ में ऐसा ही लिया है। पूरी टीका को अवश्य देखें।
आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रवचनसार गाथा २३१ की टीका में उत्सर्ग एवं अपवादमार्ग की मैत्री/ सुमेल बताया है। उसे देखने से इस श्लोक का भाव विशेष स्पष्ट होता है। तपस्वी मुनिराज को अकरणीय कार्य -
संयमो हीयते येन येन लोको विराध्यते ।
ज्ञायते येन संक्लेशस्तन्न कृत्यं तपस्विभिः ।।४२३।। अन्वय :- येन संयमः हीयते, येन लोकः विराध्यते (तथा) येन संक्लेशः ज्ञायते तत् (कार्य) तपस्विभिः न कृत्यं।
सरलार्थ :- जिनके द्वारा मुनि जीवन में स्वीकृत संयम की हानि हों, एकेन्द्रियादिक जीवों को पीड़ा पहुँचती हों एवं स्वयं को तथा परजीवों को संक्लेश परिणाम उत्पन्न होते हों - ऐसे कार्य मुनिराजों को नहीं करना चाहिए।
भावार्थ :- आचार्य समंतभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में ज्ञानध्यानतपोरक्तः मुनिराज ज्ञानध्यान एवं तप तपने में अनुरक्त रहते हैं, ऐसा कहा है। जब मुनिराज ज्ञान-ध्यान-तपोरक्त रहेंगे, तब अपने आप अन्य अकरणीय कार्य उनके जीवन में होंगे ही नहीं। इसप्रकार साधु के स्वरूप को यहाँ निषेधमूलक भाषा में व्यक्त किया है। हमेशा ग्रहणपूर्वक त्याग होता है, अत: ध्यान में निज शुद्धात्मा का ग्रहण होते ही अकार्य कार्यों का निषेध अर्थात् जीवन में उनका अभाव हो ही जाता है। इसलिए साधक जीवों का कर्त्तव्य है कि वे शुद्धात्मा के ध्यान में संलग्न रहने का प्रयास करें। आगम के अध्ययन में प्रवृत्ति की प्रेरणा -
___ एकाग्रमनसः साधोः पदार्थेषु विनिश्चयः ।
यस्मादागमतस्तस्मात् तस्मिन्नाद्रियतां तराम् ।।४२४।। अन्वय :- यस्मात् एकाग्रमनसः साधोः पदार्थेषु विनिश्चयः आगमतः (भवति) । तस्मात् तस्मिन् (आगमे) तराम् आद्रियताम् ।
सरलार्थ :- तीन लोक में स्थित सर्व पदार्थ संबंधी यथार्थ निर्णय/निश्चय एकाग्रचित्त के
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/261]